रविवार, 19 जनवरी 2020
उसके घर की डाक
शलभ डाकिया था। वो अपनी सायकल पर गांव में छोटे डाकघर में आई चिट्ठियां लेकर गांव-गांव बांटता था कुछ पढ़ा-लिखा था सो जो चिट्ठी लिख नहीं सकते थे उनकी चिट्ठियां लिख देता और कुछ पैसा ले लेता था और जो पढ़ नहीं सकते थे उनको चिट्ठियां पढ़कर सुना देता। जब त्यौहार होता घर की महिलाएं मिठाइयां पन्नी में रखकर देती थीं। कुछ शगुन भी मिलता था। घर में बूढ़ी मां थी पतुल और पिता था धर्मिष्ठ। एक बहन थी जिसको पास गांव में ब्याहा था एक छोटा भाई था जो मामा के यहां शहर में रहकर पढ़ रहा था। यूं तो शलभ के मन में कोई ग्रंथी न थी पर तो भी वो कुंठित था। एक कुंठा...कुएं के होते हुए भी थी उसको प्यास, एक अतृप्त प्यास।
अट्ठारह साल पहले उसका विवाह हुआ था शशिमुखी से। दक्खिन पुकुर के गांव के बड़े किसान की बेटी थी शशिमुखी। किसी समय में जब शलभ का परिवार रुतबा रखता था। रुतबा क्या गया लोगों ने नजर से ही उतार दिया। वक्त की बात है तबकी ब्याहता शशिमुखी का आज तक गौना नहीं हो पाया था। पिता की मौत हो चुकी थी जिनका खासा विरोध था पर अब भी बड़े भाई की बात थी। अरे कच्चे मकान में रहता है तू, हमारे घर की एकलौती बेटी है शशि हमारे घर में वो कुएं से पानी तक नहीं खींचती है पर तेरे यहां तो वो भी बराबर नहीं है।
समाज में जब भी बात उठती कहा जाता अभी वो पढ़ रही है तो अभी योग्य नहीं है। कभी तो यह भी कहा जाता कि शलभ ही उसके योग्य नहीं है। शलभ के पिता कहते-पूरे 18 गांव छान डालो 16 परगने खंगाल लो। शलभ सा संस्कारी और पढ़ा-लिखा लड़का पाओ तो जनेऊ निकाल डालूं। पर शशिमुखी का गौना नहीं हुआ और शलभ उससे कभी मिलने का साहस न जुटा पाया। पर उसको आशा थी कि एक दिन वो जरूर आयेगी। शशिमुखी का परिवार चाहता था कि रिश्ता टूट जाए क्योंकि अब शलभ के परिवार का रुतबा न के बराबर था पर विवाह के जन्मजन्मान्तर के संबंध यूं नहीं टूट जाते। समाज के लोग कहते, चिंता न करो बस सालभर में गौना होता है और मामला टलता रहा और आज भी टल रहा है।
शलभ लड़कपन में एक सिनेमा चलते टट्टा टॉकीज में देखकर आया था जिसमें नायक नायिका को खत लिखता है। वो भी हर मौसम एक खत लिखता शशिमुखी के नाम। वो सोचता कि कहने को वो जहांभर की डाक बांटता है पर जब वह अपने घर की डाक शशिमुखी को देगा तो कैसा अनोखा आलम होगा? कैसा होगा उसका प्रतिउत्तर? क्या लुभावना होगा या कि ... अपने घर की डाक ये विचार अवचेतन में पलभर को यदाकदा आता-जाता रहता था। शलभ के खत घर में ही लिखे जाते और अकेले में उसके ही द्वारा पढ़े जाते। उसकी हिम्मत कभी हुई ही नहीं कि वो इनको प्रेषित कर देता। प्रतिउत्तर में उसे सबके गुस्से से भरे चेहरे दिखते और वो डर जाता। वो जब पत्र लिखता तो अपढ़ माता-पिता सोचते वो कोई पढ़ाई-लिखाई कर रहा है। भाई-बहन को इतना मतलब था ही कहां?
शशिमुखी जिसको उसने केवल और केवल विवाह के मंडप में ही देखा था। हर रात वो उसको सपनों में पाता पर कभी उसका पूरा चेहरा उसे समझ न आता। गांव की सभी लड़कियों का अक्स उसमें दिखता। हर मौसम उसके नाम उसके और सिर्फ उसके नाम।
विवाह के समय शलभ 12 साल का था और शशि 10 की। गांव भर के लोग उससे हमदर्दी रखते तब का बालक शलभ अब 30 का प्रौढ़ था। बालों की सफेदी और चेहरे की रंगत सब खुलासा कर देती। गांव की कुछ महिलाओं को उससे हमदर्दी थी या कि शलभ को उनकी आंखों में प्रेम दिखता था। शचिभा और सुंदरी जब उसको देखती तो होंठ बंद कर मुस्कान भरती और उनके होंठ मानों रस से भरी गुलाबी रंग की चमचम से । मुंह में भर जाता हजारों रसगुल्लों से भी अधिक रसीला द्रव्य, जिसके मुख उड़ेंलें मानों आत्मा तृप्त हो जाए। गोरी-गदराई देह और गुलाबी रसीले भरेपूरे होंठ। मांग में चमकता सिंदूर, नाक में सजती लौंग, नाभीदर्शती साड़ी, कुछ उभरे पेट पर लचकती कमर में खनखनाती घरभर की चाबियों का गुच्छा, पैरों आलता और चमकते पैरहन। उश...कामदेव भी घुटनों बैठ जाएं।
आज सुबह-सुबह शाकू आया। ये शशिमुखी के गांव का था। उसने खबर दी कि सात दिन में शुभमुहूर्त निकालो और शशिमुखी का गौना करवा लो। आ गए, शलभ गुस्साया, अब आ गई याद, कैसे आई हें। धर्मिष्ठ बोले, चुपकर। उन्होंने शाकू का बिठाया। दूध पिलाया तो शाकू की जान में जान आई। अब वो रामगाथा सुनाने बैठा- यूं तो मालिक इस जनम गौना न देते पर उनको पड़ गया दिल का दौरा। उनका बेटा भावेश बोला- पिशिमां यानी बुआ का गौना करवा दो वर्ना तुम्हारे स्वर्गवास के बाद उनको पानी पूछने को कोई नहीं होगा। सुना है शशिमुखी के बर्ताव के कारण उसका घर में निबाह हो नहीं रहा है। खैर, तुम्हारा विचार बोलो तो संदेशा ले जाऊं। धर्मिष्ठ बोले- पांचवे दिन पूर्णचंद्रमा है तैयारी रखो शलभ आएगा। ठीक, अब शाकू जाने को हुआ तो धर्मिष्ठ बोले- हजार बरस में शुभसमाचार लाए हो मुंह मीठा कर जाओ। उसे गुड़ के डल्ले और पांच रुपए दिये। वो सिर नवाकर चलता बना।
लोग कहते थे-शशिमुखी पढ़-लिख गई तो तेज हो गई है। कुछ लोग कहते लालबाबू यानी कम्यूनिस्ट नेता शशिधर से उनको प्रेम हो गया है और अब वो बालविवाह को भी नहीं मानने वाली। शलभ दूसरा ब्याह कर ले। लालबाबू का रुतबा भी बहुत है क्या कहते हैं वो हां माओवादी हैं और यहां-वहां नेतागीरी करते फिरते हैं। दरगाहों में शीश नवाते हैं और भगवान के लिये गालियाँ निकालते है। बाकी लोग कहते हैं वो सच्चे बुद्धिजीवी है।
खैर, शलभ अब सोचता शशिमुखी आ जाए तो दिल के सारे अरमान निकालूंगा। कुछ दिन तो बात भी न करूंगा। न छूऊंगा भी नहीं। जब तन जलेगा तो सारा मान चूर-चूर हो जाएगा। ससुराल जाऊंगा तो भी नखरा ही करूंगा। सीधे किसी से बात न करूंगा। और बड़े भाई को मुंह तक नहीं देखूंगा।
पांच दिन बीते शलभ बैलगाड़ी से ससुराल पहुंचा। इत-उत डोलती बैलगाड़ी में भी एक ही विचार शलभ के मन में आ रहा था, विचार जो था अपने घर की डाक का। घर ले जाकर एकांत में वो उसे देगा चिट्ठियां, पर घर में एकांत कहां होगा? जब वो स्नान को जायेगी पिछवाड़े तो दे देगा या कि रात में सोते समय।
कुछ समय बाद वो पहुंचा उसके ससुराल जहां उसकी वो बेकदरी हुई की पूछो न। घर में कोई आदमी न मिला। महिलाओं ने शंख बजाया और एक पेटी के साथ शशिमुखी को विदा कर दिया। शशिमुखी की गोद में उपहार डाला, एक-एक मुट्ठी अनाज और एक बताशा। एक टांगा करके दिया उसने भी घर आकर पंद्रह रुपए झटक लिये। चलो कुछ हुआ न हुआ वधु तो घर आ ही गई।
खैर, कुछ आसपड़ोसी और कुछ नातेदार आ गए और वो भी पेटभर खाकर अन्नी-दुअन्नी के उपहार दे गए। खर्चा बैठा पूरे हजार भर का। दो एक दिन नातेदारों की खातिरदारी में बीते। तीसरे दिन सब विदा हुए तो धर्मिष्ठ ने यह बात समझकर कि घर में दो ही कमरे हैं। मां से कहा कि चलो काशी घूम आएं। काशी से बनारस फिर उज्जैन और दक्षिणेश्वर से लौट आएंगे। ये कार्यक्रम की पृष्ठभूमि पहले ही दोनों ने तैयार कर ली थी। शलभ पर जिम्मेदारी थी कि महीने दो महीने में जब तक वो लौटे वो पीछे एक कमरा और तैयार करवा ले।
पिता और मां को स्टेशन तक छोड़कर शलभ घर लौटा। अब तबीयत रंगीन थी। अब रात को सारे अरमान निकलेंगे। शलभ हाट से तीखी गंध वाली माछ लेकर आया। शशिमुखी जब से आई थी अनमनी सी थी उसे यूं ही माछ बघारी और भात पका दिया। शलभ ने वो भी मस्ती से खाया हालांकि वो ही शशिमुखी से बातें कर करता रहा था जब से वो आए थे वो तो चुप्पी डाल बैठी थी हां-हूं से आगे उसकी आवाज न निकलती थी। रात में शशिमुखी बिस्तर पर चद्दर डाल रही थी। शलभ ने उसे पीछे से देखा उसकी सांवली सलोनी काया, जो तेल लैंप में सांवली लग रही थी, वो थी तो गोरी। यहां वो (शशिमुखी) तो माछ सी ही लग रही थी और वो मगरमच्छ हो गया था। उसने लकड़ी की अलमारी खोली और जो अप्रेषित पत्र उसने आज तक लिखे थे वो निकाले। आज वो सारे खत शशिमुखी को देगा और दिल की बातें सांझा करेगा। आज बंटेगी अपने घर की डाक। उसने पत्र निकाल कर ताक में रखे और चुपके से आकर शशिमुखी का पीछे से आलिंगन कर लिया। कस लिया उसकी काया को। उश कितनी मादक थी वो। उसके स्वेद की गंध भी केवड़ा जल सी लग रही थी। पर शशिमुखी ने उस बांहबंधन में स्वयं को असहज महसूस किया और उससे स्वयं को पूरी ताकत से छुड़ाने की कोशिश की। अरे ई का कोरिबेे। तुमी देखो, छोड़ो-छोड़ो न। उसे हाथ झटकाकर बांहबंधन तोड़ दिया। यह जो कुछ हुआ वो अप्रत्याशित था। शलभ हैरान रह गया। अब उसे क्रोध आ गया वो ताक के पास गया और सारे पत्र शशि की पीठ पर उछाल दिये और बाहर निकल गया। शशिमुखी ने पलटकर देखा कुछ पत्र पड़े थे जिनके अक्षरों की पृष्ठभूमि के बीच एक पंक्ति पर उसका ध्यान गया।
शशिमुखी मेरी एकई अप्सरा। मेरी स्वयंवरा। मेरा जीवन, रूप का सर्जन।
वो पत्र उठाकर पढऩे कोई प्रवृत्त हुई और बाहर से यह देखकर शलभ निकल गया। आज उसके घर की डाक बंट गई थी।
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