मंगलवार, 21 नवंबर 2017

मौत से मुकाबला-2: जहां जिंदगी है मौत वहीं है

एक बार तीन दोस्त सुनसान इलाके से जा रहे थे तभी उन्होंने देखा कि पास ही में एक मेला लगा है। वो तीनों मेले में जा घुसे। जगह-जगह बाजीगरों के खेल-तमाशे हो रहे थे। आदमी, औरत और बच्चे यहां-वहां जा रहे थे। तभी तीनों ने एक बेहद खूबसूरत लड़की को देखा। सफेद से लिबास में वो किसी फरिश्ते की तरह लग रही थी। तीनों सुधबुध खोकर उसके पीछे चल पड़े। वो लड़की भी उन्हें देख रही थी। न जाने ये खूबसूरत हीरा किस खान का है। उस लड़की के गले में एक क्रूस लटका था। उफ...वो इतनी खूबसूरत लग रही थी कि पेगन और यहूदी भी उस क्रूस को चूमना चाहता रहा होगा।
वो लड़की एक कैंप में घुस गई। वो तीनों भी उस कैंप में जा घुसे। अंदर एक जिप्सी बुढिय़ा एक रहस्यम टेबल पर एक कांच का ग्लोब लेकर बैठी थी। लड़की उसके पीछे जाकर खड़ी हो गई मानों कह रही हो मुझे पाना चाहते हो तो इनका सामना करो। पूरा कैंप कुछ ही उजाले से भरा था जिसमें हम एक दूसरे को पहचान भर सकते थे। यहां काफी रहस्य था।
तुम...
वो तीनों उस बुढिय़ा की बात सुनकर चौंक गए। वो समझ गई कि ये तीनों इस लड़की के इंद्रजाल में फंसे हैं।
यहां बैठो...। बुढिय़ा की बात सुनकर तीनों उसके सामने पुरानी कुर्सियों पर जा बैठे जो आश्चर्यजनक रूप से तीन ही थीं।
तुम तीनों अपना भविष्य जानना चाहते हो...बुढिय़ा ने पूछा। तीनों लड़की की आंखों में खो चुके थे। तीनों ने सिर्फ गर्दन हिलाई।
बुढिय़ा ने कुछ बुदबुदाया फिर वो चिल्लाई- सेथ..सेथ...सेथ। फिर उस बुढिय़ा का हाथ ग्लोब पर रहस्यमय ढंग से घूमा।
तुम तीनों जन्म, जीवन और मौत....जमीन, आग और पानी की सल्तनतों के गुलाम हो। तुम यही से पैदा होगे और तुम्हारा अंत भी यहीं होगा। समुद्र जहां दूर-दूर तक सिर्फ पानी है पानी जो जीवन नहीं मौत है। दुर्भाग्य के देवता की मुस्कान...वो मुस्कुरा रहा है तुम तीनों पर....नेक्टर जहर हो जाता है, दोस्त दुश्मन और फरिश्ता शैतान। तुम्हारा भरोसा उठेगा, जीवन से हर उस चीज से जिसमें चैन है। मौत से कुछ कदमों की दूरी जहां चैन नहीं आग है दोजख की आग वो जिसमें रोशनी नहीं अंधेरा है बढ़ता हुआ। एक बहुत खूबसूरत हसीना दूध की शराब लेकर सफेद बिस्तर पर तुम्हारा इंतजार कर रही है। तीन, सात, सत्रह, सत्ताई के साथ सारी विषम संख्याएं और ट्रिपल सिक्स। सावधान रहो। जिंदगी मौत से ज्यादा भयानक है।
तीनों कुछ होश में आए और उठकर जाने लगे। पैसा कौन देगा? बुढिय़ा ने टोका। तीनों मुड़े और अपने साथ लाए हुए पैसे उसे दे दिये और फिर कैंप के बाहर आकर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। तीनों के सपने टूट गए थे। तीनों सोच रहे थे कि किसी बदनाम कैंप में जाकर उम्दा नहीं तो मध्यम दर्जे की शराब की कुछ चुस्कियां लेंगे और एक हसी न लड़की के नाच का लुत्फ भी उठाएंगे पर सबकुछ बेकार हो गया। तभी वो हसीन लड़की कैंप से निकली और एक हब्शी उसके पास आया । पेरिस, तू यहां क्या कर रही है? यहां से हट। हब्शी ने उस लड़की को डांटा और हमारा मुंह देखा। वो हमें समझ रहा था। वो लड़की उसके साथ चली गई पर जाते-जाते उसने हम तीनों का मुंह बड़ी बेबसी से देखा। उस दोस्तों में से बड़ा तो हब्शी से लडऩे जाने लगा किसी तरह उसे बाकी दोनों ने रोका।
वो तीनों वहां से चले गए। कुछ देर बात फिर से तीनों वहां से निकले तो देखा वो जगह बिलकुल वीरान पड़ी थी जैसे वहां कभी कोई आबादी रही ही न हो। वो तीनों भौचक्के रह गए। वो विचार ही कर रहे थे कि वहां से बालक गडरिया निकला। उसने उन तीनों को अचरज में देखकर पूछ लिया- हे, क्या तुम उस शापित जिप्सियों के मेले को घूम चुके हो। हां, तीनों ने कहा। तुमने पेरिस को देखा। हां। वो बालक हंसने लगा। तुम तीनों ने जिसे देखा वो एक छलावा है। मतलब, तीनों ने आश्चर्य से पूछा। वो जिप्सियों का मेला यहां करीब छह सौ छांछट साल पहले लगा था और यहां के बदनाम बादशाह ने उसे लूट लिया था। वो लूट में सबकुछ ले गया पर न ले जा पाया तो केवल पेरिस। उसने राजा के हरम से सजने से अच्छा मौत को समझा। पेरिस को किसी ने एक हब्शी के हाथों बेच दिया था। अब वो डायन बन चुकी है। तुम ये कैसे जानते हो, तीनों ने पूछा। लड़का रहस्यमय ढंग से हंसा-क्योंकि मैं भी एक छलावा हूं। अगले ही पल वो बालक गायब हो गया।
उस मेले की कई बातें सच साबित हुई। तीनों दोस्तों में से सबसे बड़े की मौत एक दलदल में धंसने से हुई। तारीख थी तीन मार्च। सबसे छोटे की मौत समुद्र में तैरते समय एक शार्क के हमले में हुई तारीख थी सात, जुलाई। अब बचा तीसरा डरा हुआ दोस्त यानी मैं, मेरा क्या होगा?
आगे की कहानी जानने से पहले जरूरी है कि आप और मैं एक दूसरे को अच्छी तरह से जान लें। मेरा नाम एज है। बाल्टिक देश के एक गुलाम गांव का रहवासी। जिसके पिता एक सामान्य मुंशी, मां घरेलू औरत और एक छोटा भाई और बहन हैं। बाकी बातें होती रहेंगी। फिलहाल के लिए इतना ही काफी है। अभी इतना वक्त बाकी है जितने में मैं और कुछ कह सकता हूं।
जिंदगी हमें सांसे बख्शे.......आमीन......

शनिवार, 11 नवंबर 2017

अथ गब्बर कथा: रामगढ़ में चुनावी चकल्लस पर गब्बर-ठाकुर संवाद

कई सालों बाद गब्बर ने दातून की और नहाया। काली के मंदिर में पूजा भी की और फिर एक अच्छे सरदार की तरह अपनी बिग बॉस वाली चट्टान पर जा बैठा। सभी नए और पुराने डाकुओं की हाजिरी शुरू हो गई। तभी जूनियर कालिया वहां आ पहुंचा।
सरदार
बोल
मैंने आपका नमक खाया है
नमक तेरे बाप ने खाया था और कर्ज तू चुका रहा है
हां सरदार नमक खा-खाकर
बोल क्या बात है? हां
सरदार, डाकूगीरी में वैसे फ्यूचर नहीं रहा है जैसा पहले हुआ करता था।
अच्छा...
हां! सरदार अब तो फिल्मों में भी डाकू नहीं दिखते
बहुत बुरी बात है ये तो
सरदार, एक बात कहूं
बोल....
सरदार, अब जमाना हाईटेक हो गया है। डाकुओं का काम अब नेता लोग कर रहे हैं। आप एक काम करो आप भी नेता बन जाओ। हम आपके साथ है।
नेता, कैसे बनूं, इच्छा तो मेरी भी है
सरदार, ठाकुर भी रामगढ़़ में नेतागीरी ही कर रहा है। अभी रामगढ़ में चुनाव भी होने वाले हैं। सरदार....
वाह, मैं भी चुनाव लड़ूंगा
मुझे रामगढ़ की नीति... राज नीति समझाओ
सरदार, रामगढ़ में लोधी नेताजी की इज्जत दांव पर है। चुलबुल आंधी, पार्दिक और चुग्नेेश भैयाजी के साथ मिलकर आंधी चला रहा है। रामगढ़ के दूसरे क्षेत्रों में लोधी आंधी की आंधी को थामने की बात करते घूम रहे हैं। अल्प(पेश) मत थामेगा बहुमत,मत...दान में कर...दान।
कालिया, हम क्या करेंगे रे...कितने वोट मिलेंगे!
वोट नहीं नोट सरदार, वो भी खूब, हम तो वोट काट लेंगे इसके लिए लोधीजी या चुलबुल हमें पैसा दे देंगे।
वाह, कालिया, दिल खुश कर दिया। आज से तू दिन भर नमक खा। तेरे बाप से ज्यादा कर्ज तो तूने अदा कर दिया। जा जाकर प्रचार की तैयार कर।
पर सरदार, पार्टी का नाम और चुनावचिन्ह रजिस्टर में दर्ज करवाना पड़ेगा।
क्या नाम रखूं, भारतीय गब्बर पार्टी, इंडियन नेशनल चुलबुल पार्टी, क्या चुनाव चिन्ह बताऊं, डाकू पंजा, बंदूक, पंचर साइकिल, पेटू हाथी, खूनी हंसिया।... रुक जा कालिया पहले मैं ठाकुर की खबर लेता हूं।
गब्बर ने ठाकुर को फोन लगाया। ठाकुर चुलबुल के लिए भाषण लिख रहा था। उसने फोन उठा लिया।v हलो...
चुलबुल की आंधी या लोधी का भाषण हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।
अरे आप कहीं कायमसिंह जाधव तो नहीं बोल रहे हैं जिनको कुपुत्र ने कटप्पा बनकर पीठ में तलवार दे मारी।
मैं मुलायम नहीं कठोर, बंदर नहीं शेर बब्बर बोल रहा हूं।
अरे आपका कोई भविष्य नहीं है बाज बब्बर साहब, आपको डायलॉग ठीक से याद नहीं होते, राजनीति क्या समझेंगें?
अब तो गब्बर परेशान हो गया।
मैं गब्बर बोल रहा हूं।
गब्बर, अरे मैं तो कुछ और समझ रहा था। बेरोजगारों के बाहूबली...फोन रख। मुझे परेशान मत करो में चुलबुल के लिए भाषण लिख रहा हूं।
डूंडे ठाकुर, चुलबुल है मेरे जैसा सिंघम भी है।
चुलबुल आंधी है गब्बर... आंधी
आंधी...अरे फुकनूस के चुलबुल गुब्बारे जो राजनीति में एसी के रूम में बैठकर गूगल पर राजनीति करता हो, वो गब्बर सर्च इंजन में जीरो है जीरो।
गूगल...तुम गूगल कैसे समझते हो गब्बर
मैं उस पर मेहबूबा की नीली फिल्में देखता था ठाकुर।
नीली...नीली से स्मृति में आया कि अभी मन में विचार आ रहे हैं। परेशान मत करो।
ठाकुर ने फोन रख दिया।
अपनी पार्टी के बारे में गब्बर सोच ही रहा था कि सांभा वहां पर आ गया।
कालिया और गब्बर को देखकर वो समझ गया कि यहां कुछ गड़बड़ हुआ है।
क्या हुआ सरदार, सांभा ने पूछा।
गब्बर ने पूरी दास्तान उसे सुना डाली।
सांभा हंसने लगा- सरदार इस कालिया के बच्चे की बातों में मत आना। चुलबुल कितनी ही आंधी चला ले लोधी का कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता। लोधी को तो केवल घर के विभीषणों से ही खतरा है और बाकी बचा उसके अपने किए कर्मों के कारण। रही अपनी बात तो सरदार हम भले ही डाकू हैं। लूटना हमारा धंधा है पर हमारे अपने उसूल कायदें हैं पर राजनीति में अवसर ही कायदा है, वही नियम सरदार। अपने ही अपनों का गलाकाट देते हैं।
गब्बर ने जूनियर कालिया का मुंह देखा। फिर रिवॉल्वर निकाली- अब तेरा क्या होगा कालिया के बच्चे।
कालिया भागते हुए बोला- सरदार रिवॉल्वर खाली है। कुआरे की साली है। बड़े जतन से पाली है। फिर भी देती गाली है। ये कुछ और नहीं राजनीति की नाली है।

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

बड़ा सम्मान


ये कहानी इंदौर शहर में हुई एक सच्ची घटना पर आधारित है।
आज रेल गाड़ी को हरी झंडी दिखानी थी रेल भी सामान्य नहीं थी दो प्रमुख शहरों को जोडऩे वाली थी। नेताजी शहर की सांसद के साथ रेलवे स्टेशन आने वाले थे। स्वागत का पूरा इंतजाम हो चुका था। ऐन मौके पर नेताजीको जरूरी काम आ गया। सांसद नेताजी की खातिर आ रही थी वर्ना उनको इससे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला था। नेताजी नहीं आए तो वो कैसे आतीं वो एक समाजप्रमुख की शोकबैठक में निकल गईं। अब खलबली मची कि झंडी कौन दिखाए। रेल फुल थी स्थानीय गार्ड छुट्टी पर थे। प्रभारी गार्ड साब ने कहा- कोई भी दिखा दो यार पर लोगों में कोई उत्साह नहीं दिखा अंतत: गार्ड साब को चपरासी दिखाई दिये वृद्ध चपरासी झुकी पीठ से फाइलें लेकर कक्ष में जा रहा था।
गार्ड साब ने तुरंत चपरासी को बुलवाया चपरासी डरते हुए आया....गार्ड साब ने गेंदे की माला उसके गले में डाल दी और झंडी पकड़ा दी अब तुम ही झंडी दिखा दो हम यहां के हैं नहीं कैसे ये काम करें...तुम यहीं के हो सबमें बड़े हो वयोवृद्ध हो झंडी दिखा दो....चपरासी को काटो तो खून नहीं। ऐसा सम्मान....चपरासी बाबा के चेहरा ऐसा गदगद हुआ कि वो भाव शायद अब मरण पर भी नहीं उतरेगा। चपरासी बाबा ने झंडी दिखाई और डब्बे में चढ़ गया फोटोग्राफर ने फोटो खींची जो पेपर में छपी शीर्षक था बड़ा सम्मान.....

जमाना ऐसा ही है!


छुटकी को गुडिय़ा दिलवाई तो उसने नहीं ली उसे गेम खेलने के लिए मोबाइल चाहिए था... हजार का खर्च कर दिलवाया। मॉम बोलीं, अब इसी का जमाना है क्या करें? छुटकी गुल से गुलिस्तान हो गई, कई लड़कों से दोस्ती हो गई ये तक तो ठीक , वो डेट पर भी चली जाती। मॉम कहती अब क्या समझायें जमाना इन्हीं का है। छुटकी ने शादी स ेइंकार कर दिया और एक लड़के के साथ लिवइन में रहने लगी। मॉम बोलीं- क्या करें युवाओं का ऐसा ही जमाना है।
कुछ दिनों बा द छुटकी घर लौटी बताया कि हैप्पी न्यूज है। मॉम बोलीं- क्या करें युवावर्ग का जमाना ऐसा ही कर रहा है ।
अब कुछ दिन बाद छुटकी घर रोते हुए लौटी कहा लड़के ने भगा दिया वो शादी कर रहा है अबॉर्शन का बोला है। मॉम बोलीं- कोर्ट केस करेंगे क्या करें जमाना ऐसे ही दावपेंच का है। मॉम ने पुलिस में रपट लिखवाई इंस्पेक्टर बोला- पैसा लेकर अबॉर्शन करवा लो, पार्टी बड़ी है लड़की को कोर्ट में रंडी साबितकर देंगे,पार्टी रसूखदार है मुझे ही कहा कि रिपोर्ट मत लिखना आएं तो भगा देना मैं तो फिर भी इंसानियत के नाते समझा रहा हूं। समझौता कर लो..... केस रिपोर्ट में क्या रखा है वैसे भी मामले पर कोई केस बनता ही नहीं है। मैं क्या रिपोर्ट लिखूं। जाकर बात करो पैसा लो, पाप गिराओ छुट्टी पाओ। पैसा लेकर मामला रफा दफा कर दो जमाना ऐसा ही है....मॉम सुनती रहीं। वो बाहर आ गईं उनके कान में आवाज गूंज रही थी जमाना ऐसा ही है....जमाना.....

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

कम्मो


ये कहानी कुछ समय पुरानी है जब ग्रामीण समाज में स्त्री अधिकारों को लेकर जागरूकता नहीं आई थी। हालांकि कुछ पिछड़े ग्रामों में आज भी इस तरह की समस्या देखने को मिलती है। दया ने कम्मो के देह की नहीं मन की सुंदरता देखी ,त्याग और तपस्या देखी। हमारे आसपास ही बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि देखने में सुंदर नहीं हैं पर उनका मन साफ और सुंदर है। लोग देह की सुंदरता को ही श्रेष्ठ मान लेते हैं जो कि गलत है। आज भी कई कम्मो ऐसी हैं जिनको दया जैसी दृष्टि से देखने वाला कोई नहीं है वो घुट-घुट कर मरने को विवश हैं। कई पुरुष भी ऐसी श्रेणी में आते हैं। ———–
दया ने कम्मो के होंठों को चूम लिया और वो कम्मो को गोद में उठाकर कड़े से तखत तक ले गया। कम्मो उस कड़े तखत पर भी एक सुकून से लेट गई जिस प्यार और पूर्णता की उसे तलाश आज तक थी। वो आज यूं मिल जाएगी, वो जानती न थी। दया ने कम्मो के पांवों को चूम लिया। पायल छनक उठी, ये आप क्या कर रहे हैं? कम्मो ये मेरा वो प्राश्चित है जो मैंने उस पाप के लिए किया है जो मुझसे हो गया है। मैंने तुम्हे हमेशा एक देह के रूप में देखा पर तुम्हारी आत्मा की सुंदरता से मैं विलग सा रहा। तुम मुझे अपने में मिलाकर पूर्ण कर दो।
ये आप क्या कह रहे हैं मैं आपकी दासी हूं।
मुझे और लज्जित न करो, इस वाक्य के साथ दया अतीत की यादों में डूब गया।
दया शहर में सरकारी मुलाजिम होकर कलेक्टर साहब का नौकर था। शहर में रहना था। छुट्टियों में वो गांव आ जाया करता था। परिवार में सबसे बड़े दया के दो छोटे भाई बहन थे जो कि किशोरावस्था में पहुंच चुके थे। प्रौढ़ माता-पिता थे। घर की खेती-किसानी थी। दया की उम्र हो चुकी थी सो विवाह लाजमी था ही।
दस माह पहले दया का विवाह कम्मो से हुआ था। कम्मो के घर वालों जिनमें चाचा-चाची थे, ने उसे घूंघट में दिखकर बताया कि वो गुणी है और ठीकठाक नाकनक्श वाली है। गांव और भरोसे का मामला जान माता-पिता ने हां कर दी। दया उस समय शहर में ही था।
गांव आया तो उसकी शादी हो गई। दया इसको लेकर अनमना सा था। शादी की रात वो कमरे में पहुंचा फूलों की महकती सेज पर दुल्हन बैठी हुई थी। दया ने उसका घंूघट खोला और खोलतेे ही पीछे हट गया।
कम्मो श्याम वर्ण की थी। कुछ मोटी होकर शरीर से भी वो कमनीय नहीं थी। दया का दिल टूट गया और वो दरवाजा खोल बाहर निकल गया। परिवार भर में बात फैल गई। दया की मां ने कहा, दया का नातरा होगा। घर वाले कम्मो को वापस ले जाएं।
चाचा-चाची ने अपनी बला टाली थी सो वो क्यों कम्मो को वापस ले जाते। जीये या मरे पति के घर रहे। बस यही बात सामने थी। दूर के काका ने समझाया, अगर इसे घर से निकाला तो समाज में नाम बिगड़ जाएगा। साल एक भर घर में रखो फिर इसका निपटारा कर देंगे। गांव में ऐसी बदï्किस्मत लड़कियां ज्यादती सहते-सहते या तो खुद जान दे दी थीं या परिवार वाले उसे हादसे का रूप देकर मार देते थे। सो अब कम्मो से घर में सारे काम लिए जाने लगे। बात तक भी कोई ढंग से न करता पर उसके मन में एक आशा थी कि दया एक दिन उसे जरूर स्वीकारेगा सो वो भी जुल्म सहती काम करती रही। खाने को मिला रूखा-सूखा सोने को घर से अलग छोटा कमरा। पलंग की जगह मिला कड़ा तखत।
बीच-बीच में उड़ती बातों से पता चला कि कम्मो को उसके घर वाले कम्मो करमजली कहते थे। उसके जन्मते साथ ही मां-बाप मर गए। शक्ल भी उसकी अच्छी न थी। उसे लोग मनहूस मानते थे और गांव में उसका लगन न लगना था सो उन्होंने दया के परिवार वालों को बिना उसका चेहरा दिखाए लगन लगा दिया। अब जाए ससुराल, मरे-जीये अपनी बला से। कम्मो काम करती रही, बीमार हो या ठीक। गांव वाले भी चोरी छिपे मजाक उड़ाते कम्मो मां नहीं बनेगी कौन इसकी सेज पर इसे अपनाएगा। रहा पति दया, वो तो शादी दूसरे दिन ही शहर भाग गया।
दिन फिरे दशहरे से दीपावली के बीच दया गांव आया। उसने देखा कम्मो दिनभर काम करती रहती, सांस भर भी न लेती। वो दुखित हुआ। परिवार वाले भी उससे अच्छा व्यवहार न करते। खाने-सोने का कोई लिहाज न था। फिर भी बिना शिकायत चेहरे पर मुस्कान और पसीने से भीगा बदन लिए वो काम करती रहती।
दया जानता था कि कम्मो या तो आत्महत्या कर लेगी या हादसे का रूप देकर उसे कोई मार ही देगा चूंकी ऐसा होना उस पिछड़े गांव में संभव था और वो भी चाहता था कि कम्मो के बजाए उसके जीवन में कोई सुंदर सी लड़की आए।
करवाचौथ का दिन आया गांवभर में सुहागिनों सहित कुंआरी कन्याओं ने व्रत रखा। कम्मो ने भी बिना पानी पिये व्रत रखा। दिनभर काम किया और शाम को ये जानकर कि दया नहीं आएगा चांद को देख फिर दया का फोटो जो कमरे में लगा था को देख पानी पी लिया। इस बात ने दया को झकझोर दिया। वो खुद को रोक न सका उसका सारा मन का मैल कम्मो के त्याग और तपस्या ने धो डाला। वो कम्मो के कमरे में घुस आया और सांकल लगा दी। कम्मो ने देखा तो वो चौंक गई। दया ने उसे आलिंगन में लिया और उसे चूम लिया। दया यथार्थ में आया। उसने अपना सारा प्यार कम्मो पर उड़ेल दिया और कम्मो ने उस प्यार को अपने प्यार से स्वीकार किया। दया कम्मो को चूमता रहा। कभी उसके पायल से सजे पांवों को तो कभी चूडिय़ों से भरे हाथों को, उसकी सिंदूर से भरी मांग को, कभी माथे को-बिंदिया को, नींदालु आंखों को, गालों को तो कभी उसे सूखते होंठों को जो आज उसे कभी न खत्म होने वाले रस से भरे लग रहे थे। ये दया का प्यार था या कि उसकी कम्मो के प्रति कृतज्ञता ये समझा पाना आसान नहीं है।
दूसरे दिन तड़के जब कम्मो काम करने के लिए उठने लगी तो दया ने उसका हाथ पकड़ लिया।
ये क्या कर रहे हो जी!
बस! कम्मो अब बहुत हो चुका।
घर का ही तो काम है!
मैंनें कहा न बहुत हो चुका, फिर दया ने बात बनाते हुए कहा, कम्मो तू सचमुच बहुत सुंदर है मन से और तन से भी!
हटो…हटो, कम्मो ने आग्रह किया।
दया ने कम्मो का आग्रह ठुकरा दिया और उसे फिर से उस कड़े तखत पर खींच लिया जो फूलों के सेज से भी ज्यादा सुकून दे रहा था। एकाएक कम्मो हंस पड़ी। दया ने उसे पहली बार हंसते हुए देखा था। आज वो मानो उससे इतनी बड़ी हो गई थी कि उसे अपना प्यार कम लगने लगा था। दया और कम्मो फिर एक हो गए।
मां को सब मालूम चला। ये क्या बात हो गई। दया अंदर चला गया। बहुरिया सुबह न उठी। वो सुबह दस बजे दरवाजे तक पहुंचने की सोच ही रही थी कि दया बाहर आया। और सबको समझााया कि वो नौकर लगाएं कम्मो ज्यादा काम नहीं करेगी। करेगी उतना जितना एक बहू को करना चाहिए। साथ ही घर के सभी लोग उसकी पूरी इज्जत करें, क्योंकि वो घर की बड़ी बहू है। कम्मो का जीवन उसके साथ जुड़ा है। बाकी बात तो सब खुद समझते हैं, समझाने की जरूरत ना है। चलो कम्मो मां के पांव छूओ । दया और कम्मो ने मां के पांव छुए। मां अनमनी रही। धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो गया और कम्मो ने सभी का दिल जीत लिया। वो अपने अच्छे व्यवहार से कम्मो से भाभी बनी और भाभी से भाभी मां।

भैयाजी की उलझन

भैयाजी की जब से शादी हुई थी तब से परेशान ही थे। शादी को केवल 5 साल ही हुए थे पर पांच बच्चे थे। भौजी जब आई थीं तो भैयाजी के बड़े अरमान थे। ये अरमान ही थी कि भौजी की चिकचिक के बीच भैयाजी ने मौका निकाल ही लिया और घर में ललना-ललनी आ गए। भैयाजी तीन भाई पांच बहने थे। दद्दा का मन संन्यासी हो गया वर्ना...खैर भैयाजी तीसरे नंबर के थे, उनसे छोटी एक बहन ही थी जो अनब्याही थी। द्ददा बनारस गए थे पर मन नहीं रमा तो वापस आ गए। एक माला और गुरुजी से दीक्षा ले आए और वापस खेती सम्हाल ली। बताते थे कि गुरुजी को खोटेकाम करते देख दद्दा का मन टूट गया। दीक्षा ले ली थी तो मंतर तो जपना ही था। बड़े भैया खेती किसानी करते थे। मंझले वकील थे और ज्यादा वक्त खाली ही बैठे रहते थे। बाकी बची चार बहनें जो ब्याह दी गई थीं सो चिंता तो थी नहीं। सबसे छोटी थी सती जिसकी शादी बाकी थी। यूं तो भैयाजी का नाम रामानंद था पर उन्हें रम्मू कहा जाता था और भौजी का नाम था सत्यभामा, जिनको सत्ती कहा जाता था। अब आते हैं मूल प्रकरण पर...घर में तनाव का वातावरण है। सती का ब्याह पास गांव में जा लगा है। बाई (दद्दा की पत्नी और सबकी मां) अपनी पांच तोले सोने की करधनी और डेढ़-डेढ़ किलो की चांदी की झांझ सती को देना चाहती थीं पर इन जेवरों पर घर की बहुओं की नजर भी थी। परिवार के बड़े-बूढ़े आज भी आपस में दबी जुबान से कहते हैं कि जवानी में जब रूपकुंवर (बाई का नाम) अपनी कमर पर करधनी और झांझ पहनकर ठुमक-ठुमक कर चलती थी तो उस रूप का रसपीने के लिए सभी ललायित हो जाते थे। खैर, मुद्दे पर आएं, यूं बड़ी भौजी को इन बातों से कोई लेना देना न था मंझली, जो सरकारी नौकरी करती थी, अपनी परेशानियों से वैसे ही परेशान थीं जैसे भारत सरकार। बची छोटी यानी अपनी भौजी, उनको इस बात पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि जब सबके ब्याह हुए तो बाई ने सबको अपने जेवर बांट दिए पर जो वो ब्याहकर आई तो उनको कुछ न दिया। नेग में सवा रुपए दिए और घर में बना मुठिया का लडï्डू खिला दिया। अब बहू होने के नाते उनका हक इन जेवरों पर है। वैसे भी घर के जेवर घर में ही रहें, बाहर घर क्यों जाएंï? बड़ी भौजी कहतीं बाई जो चाहे करे पर हिस्सा अगर होता है तो हमको भी मिलना चाहिए। मंझली की भी राय कुछ ऐसी थी तो क्या जेवर तुड़वा दें। बाई इस बात पर कहतीं- सारी दुलहिन एक नथनी, एक कांटा, बिछिया, पायल में घर आईं। घर की इज्जत की बात है सो उनको तो देना ही था। कुंवर साहब के घर की औरत नागड़ी घूमें ऐसा हो सकता है क्या? छोटी की दुहली तो सबकुछ लेकर आई। उसे क्या देना? अब एक धोबीपछाड़ तर्क-बड़ी दुलही घर का-किसानी का सारा काम देखती है। मंझली घर की सरस्वती है, जितना वो पढ़ी उतना कोई नहीं। सारा परिवार अंगूठाछाप। वो देव की किरपा थी कि साक्छात सरस्वती दुलही बन आई। वो दसई फेल है तो क्या हुआ नौंई तो पास है। गांव के स्कूल में मास्टरनी है। भले ही दद्दा ने जुगाड़ से लगावा हो पर निभा तो रही है न, पैसा भी कमाती है। अब छुट्टन (भैयाजी का घरू नाम) की दुलही ना काम करे, न पढ़ी लिखि, दिनभर बस साजसिंगार और आराम-फरमान। अब परेशानी ये है कि मामला बहुत बढ़ गया। एक दिन भैयाजी ने चिकचिक से तैश में आकर भौजी को थप्पड़ जड़ दिया। भौजी अपने पांचों बच्चों को वहीं छोड़कर मईके चली गईं। यहां-वहां चर्चा फैल गई कि दद्दा के घर में फूट पड़ गई है। तीन-चार दिन किसी तरह कटे। फिर सभी ने भैयाजी से कहा कि भौजी को मना लाओ। कुछ जुगाड़ बिठा लेंगे। भैयाजी तो पहले ही सोचते थे कि वो खुद जेवर लेकर सत्यभामा को पहनाएंगे। उनको सजाएंगे फिर.....पर ये जेवर बाई के होंगे, ये बात पर वो सोच न रखते। भैयाजी बड़े रोमांटिक किस्म के इंसान थे पर भौजी ने पूरे रोमांस को धता बता दिया। निश्चित दिन भैयाजी भौजी को लेने चले गए। किसी तरह मनाया और बाईक पर बिठाकर वापस चले। रास्ते में भी भौजी की चिकचिक जारी रही। देखो, मुझे सिर्फ झांझ या करधनी में मत बहलाना मुझे दोनों चाहिए हां। कहे देती हूं, वर्ना रात को हाथ न लगाना। अब तो भैयाजी को गुस्सा आ ही गया। अपने मर्दाना हक पर डाका। अरे, जो मिल रहा है ले ले। आधी तेरस (धनतेरस) पर तुझे सोने से लाद दूंगा। बस तू ही बचेगी हाड़-मांस की। भौजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वो बाईक से नीचे कूद गई। भैयाजी ने बाईक रोकी। अरे कहीं सुकुमारी को चोट न लग जाए। गांव-खेड़ा था। कच्ची सड़क। बाईक की रफ्तार साइकिल से भी धीमी थी। कहीं झटके न लगें इस लिए। कुछ दूर पुलिया पर बैठे भैयालोग ये देखकर मामला जानने पास आ गए। वैसे भी भारत में फटे में टांग डालने की आदत होती है और मामला जब महिला या लड़की का हो तो आप जरूर ही जाएंगे। सामने वाले की गलती हो न हो आप महिला या लड़की ही पक्ष लेंगे। खैर, भैयालोग आ गए। भौजी भी खड़ी हो गईं। मैं इसी लिए आई कि दोनों मिलेंगे। समझे, भौजी गुर्राईं। अरे, मैंने कब मना किया पर बाई की बात भी तो रखों। बाई गई भाड़ में। देख तुझे पहले भी समझाया था ऐसे न बोल। एक रेपड़ा दूंगा। भैयालोग जब समझे कि मामला जोरू और घरू है वो इधर-उधर होने लगे। तभी पता नहीं कहां से दरोगा जीप समेत आ धमके। उन्होंने पूरी बात पूछी तो भौजी ने दहेज प्रताडऩा का मामला बता दिया। भैयाजी की बात सुनी नहीं गई और उनको थाने ले आए। थाने से भैयाजी ने मोबाइल लगाया। दूसरी तरफ से बाई ने फोन उठाया। क्या हुआ? अच्छा, रुक मैं मंझले को भेजती हूं। भैयाजी थाने में बैठे थे और आते जाते लोगों को देख रहे थे और इस उलझन में थे कि इनमें से कितने दहेज प्रताडऩा के मामले में उनकी तरह फंसे होंगे?

कुएं का रहस्य

दोनों लापता दोस्तों का आज तक पता नहीं चला है। पर लोगों को आज भी उस सड़क पर जाने में डर लगता है। कुछ दुस्साहसियों ने वहां से गुजरने की कोशिश ...