शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो

मित्रों ये कहानी एक ऐसी सामाजिक बुराई पर आधारित है जो किसी की आँखों से छुपी नहीं है। ये कहानी एक कटु सत्य है। बेटी का जन्म, महिला की स्थिति और समाज में फैली सोच ने इस सत्यकथा को जन्म दिया। विक्रम प्रताप और सुंदरी को एक ऐसा जीवन मिला जो जीवन था या नहीं कोई नहीं कह सकता। ये दोनों कब पैदा हुए और कब इस दुनिया से कूच कर गए कोई नहीं जानता पर इनके जीवन ने जिन प्रश्नों को जन्म दिया वो आज भी इन्हें जन्म दे रहे हैं और कब तक जन्म देंगे कोई कह नहीं सकता। प्रस्तुत कहानी कई ज्वलंत प्रश्नों को हमारे सम्मुख उठाती है।
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ठकुराइन करीब सोलह साल बाद शहर से गांव जा रही थी। गांव में उनकी अपनी हवेली थी, खेत थे पर वो भी था जिसका साया सोलह साल से उन पर मंडरा रहा था। कार में बैठी ठकुराइन को याद आ रही थी सोलह पहले की एक तूफानी रात। एक रात जब कुछ ऐसा हुआ था, जिसका खौफ आज भी ठकुराइन को डरा देता था। ठकुराइन का नाम था विनीता। बीस साल पहले ठकुराइन ठाकुर श्याम सिंह की ब्याहता होकर गांव पहुंची। श्याम सिंह को देखकर ठकुराइन को न जाने कैसा डर लगता था। एक अज्ञात डर। ठाकुर के परिवार में थे पिता रामसिंह, मां बेला, दो ननदें राधा और कौशल्या, वैसे नियम से तीन और होतीं वो भी श्याम से बड़ीं पर वो भ्रूण हत्या का शिकार हो गईं। यही कहानी अब ठकुराइन के साथ बीतने वाली थी। हवेली में वो सभी से डरती थी। यहां सिर्फ मालिन दयावती से उसकी अच्छी घुटती थी। वो ही यहां उसकी एकमात्र सहेली थी। पहले साल ठकुराइन को बेटी पैदा हुई। सास बेला ने कह दिया कि माता आई हैं पर अब तो रामजी को आना होगा। दूसरे साल ठकुराइन को फिर बेटी ही पैदा हुई। पहले सास थी, जो वंश की बात करती थी पर अब ससुर भी गाहेबगाहे दूसरों की बहुओं की बात छेड़ देते जो लड़के पर लड़के पैदा कर रही थीं। लड़का पैदा करना था इसलिए मन्नतें हुईं, पूजाएं हुईं और वो सारे टोटके हुए जो हो सकते थे। इस बीच विनीता की ननदों की भी शादियां हो गईं। विनीता का दुर्भाग्य कहें या वक्त का खेल, ननदों को भी लड़के हुए। विनीता अब और डरने लगी। अब मालिन दयावती विनीता को समझाती कि भगवान पर भरोसा रखो सब अच्छा ही होगा। मालिन के पहले से एक बेटा था। विनीता का मन बहलाने को कभी-कभी दयावती उसे अपने पति और अपने अभिसार की बातें भी बता दिया करती थी कि कैसे कभी वो भीग जाती है कैसे तो बाबू जी (वो पति का नाम न लेकर उसे बाबूजी कहती थी) उसे कस कर पीछे से दबोच लेते हैं। कैसे उसे मिठाइयों नाम से संबोधित करते हैं और न जाने क्या-क्या जिसे विनीता ने कभी ध्यान से सुना ही नहीं।
तीसरे साल विनीता जब उम्मीद से हुई तो उसे डॉक्टर को दिखाया पता चला कि अब भी बेटी है तो गर्भ गिरा दिया गया। विनीता चुप रही पर इस खौफजदा चुप्पी में क्या था? कोई नहीं जानता। चौथे साल अजब संयोग था कि ससुर स्वर्ग सिधार गए और सास तीर्थ करने चली गईं। श्यामसिंह बंबई में था। इधर, विनीता और उधर दया दोनों उम्मीद से थीं। उधर, नियती का खेल था कि निश्चित दिन दया को एक बेटा हुआ और उसी शाम ठकुराइन फिर उसी दर्द से दो-चार हुई जिससे पिछले तीन बार से हो रही थी। वक्त नाजुक था और हवेली खाली थी। केवल विनीता और दयावती की मां जो दयावती के बच्चे को जन्म दिलवाने के लिए यहां आई हुई थी। उसने किसी तरह से दाई बनकर बच्चा पैदा करवाया। अब भी बेटी ही पैदा हुई थी। विनीता घबरा गई। दया की मां ने ये बात दया को बताई तो दया किसी तरह वहां पहुंची और अपना बेटा ठकुराइन को दे दिया और उसकी बेटी को अपना लिया। ये बात सिर्फ तीन लोगों के बीच रही विनीता, दया की मां, जो कुछ महीने बाद जन्नत नशीन हो गई और दया जो पन्ना दाई की तरह विनीता की नजरों में हो गई थी।
श्यामङ्क्षसह लौटा तो वंश का दीपक पाकर खुश हो गया। पूरा परिवार कुल देवी के मंदिर गया। जश्न हुआ और कुछ दिनों बाद विनीता शहर चली गई, दया को किए इस वादे के साथ कि दया का बेटा सुरक्षित रहेगा और इस वचन के साथ कि उसकी बेटी भी अच्छी रहेगी और इसकी शादी ठकुराइन वैसे ही करवाएगी जैसे ठाकुरों की होती है। विनीता ने श्यामसिंह से कहा कि वो दया की बेटी, जिसका नाम सुंदरी रखा गया था, की शिक्षा का जिम्मा उठाए क्योंकि वो उसकी सबसे करीब थी और उसकी दुआओं का असर है कि उसकी गोद में लालना खेल रहा है। श्याम ने वादा किया पर क्या सभी वादे पूरे होते हैं। एक दिन शहर में विनीता में पता चला कि गांव में बाढ़ आई और मालिन का घर बह गया। कोई जिंदा नहीं बचा, उस दिन विनीता के आंसू रोके न रुके। उसकी बेटी मर गई पर वो कहती तो किससे और कहती तो जो कयामत होती उसका अहसास ही उसे कंपा देता था। वक्त सबसे अच्छा मल्हम है और अब विनीता को मालिन को दिए वचन को पूरा करना था।
श्यामसिंह ने विनीता को गांव नहीं जाने दिया। आज वो बाहर गया था वो बिना किसी को कुछ बताए वहां आ गई। उसकी बेटी का क्या हाल है? उसे अब तक नहीं मालूम हां, उसका बेटा विजयप्रताप जरूर बड़ा हो गया है। उसकी दो बेटियां शादी के बंधन में बंध चुकी हैं। सबकुछ तो ठीक है पर वो विजयप्रताप को बिगडऩे से नहीं बचा पाई। विजयप्रताप को बुरी लतें थीं, हां पर एक बात जरूर अच्छी थी कि वो जो एक बार वचन दे देता था, उस पर कायम रहता था भले ही कयामत आ जाए।
गाड़ी हवेली पर रुकी विनीता अंदर पहुंची। अंदर देखा तो एक बहुत खूबसूरत सी लड़की झाड़ू बुहार रही थी। उसकी मांग भरी थी। विनीता का मन हुआ कि वो राजपुतानी और अनब्याही होती तो विक्रमप्रताप की दुल्हन बना लेती। ठकुराइन ने सबसे पहले उससे दया के बारे में पूछा तो वो बोली कि मांं अब दुनिया में नही ंहै। विनीता चौंकी- तुम्हारा नाम क्या है? सुंदरी। अरे, विनीता चौक गई। तेरा घर तो.....घर तो बह गया पर मैं ही बच गई। माई और भाई, बापू के साथ बह गए। तेरा ब्याह कब हुआ, किससे हुआ? वो कुछ न बोली। हवेली खाली थी। तभी अंदर से उनका पुराना नौकर कन्हैया निकाला और ठकुराइन को देखकर घबरा गया। कन्हैया जो कहूं सच बताना वर्ना बाहर लठैत हैं। विनीता यूं तो डरती थी पर कमजोर पर सब दबाव रखते हैं। इसका पति कौन है? विनीता को कुछ शंका हुई। ठकुराइन जान की अमान पाऊं तो कहूं। बोल। ठकुराइन ये आपकी सौतन है। सौतन। हां, ठाकुर करीब सालभर पहले यहां आए थे वो इस पर रीझ गए। वो तो इसे पतुरिया की तरह रखते हैं पर ये उनको पति मानकर उनके नाम की मांग भरती है और उनको अपना पति मानती है।
ठकुराइन बिना कुछ बोले शहर आ गई। कुछ दिन बाद श्यामसिंह वापस आ गया। उसी रात विनीता ने श्यामसिंहको गांव जाने की बात बताई तो वो नाराज हो गया और विनीता को दो-तीन तमाचे मार दिए। कुछ ज्यादा नशा चढ़ा तो बकर ही दिया, अरे उसकी क्या बात है? उसकी मां भी तो हमारी रखैली ही तो थी। अब ठकुराइन को अहसास हुआ कि क्यों उसकी बच्ची को दयावती ने अपनाया। उसके दिल की एक ख्वाहिश थी कि ठाकुर का नाम उसके बच्चे को मिले जो शायद उसकी ही संतान थे पर ऐसा न हो पाया तो उसने उसकी बेटी को अपनाया ठाकुर की संतान को ही उसके हवाले किया जिसे शायद ठाकुर का नाम मिलना ही नहीं था पर उसे वो सबकुछ मिला। अब उसके सामने सारी कहानी दर्पण की तरह साफ हो रही थी। दयावती श्यामसिंह को बाबूजी कहती थी और उसने एक बार सुना था तो वो अपने पति को ऐजी कहकर ही संबोधित करती थी। तो क्या बाबूजी यानी श्याम और उसकी अभिसार कथाएँ ही वो उसे सुनाती थी? श्याम ने ही उसे ........न-न जिसेे वो नीची जात मानते थे उसे शैया पर भोगने में क्या पाप नहीं लगेगा? जात-पात का भेद वासना के आगे शून्य है? एक बात और जो उसके मन में खटकी वो थी कि एक दिन श्याम ने विक्रम को गोद में लेकर कहा था तू तो मेरा लड्डू है। रसमलाई थोड़े ही है।
अगर विक्रम प्रताप श्यामसिंह की संतान है तो सुंदरी भी तो उसकी की संतान है। ये कैसा अनर्थ हो गया? इस पर श्यामसिंह ने अपनी ही बेटी को अपनी रखैल बनाया। उसे अपने साथ......हे भगवान ये कैसा पाप हो गया? पर क्या वास्तव में विक्रम श्याम और दयावती की अवैध संतान है? पूरी तरह से विचार कर भी विनीता किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी। अंतत: उसने सबकुछ कुलदेवी पर छोड़ दिया और सोते हुए श्यामसिंह को पुश्तैनी तलवार घोंप दी और रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली। एक सुसाइड नोट लिखा- मेरे नाम के और मालिन के सगे बेटे विक्रम , हवेली की मालकिन सुंदरी से ब्याह कर ठाकुर खानदान की इज्जत बचा ले। एक मालिन के बेटे से एक खालिस खून वाली ठकुराइन की फरियाद। पता नहीं कि तू भी कहीं तेरे पिता और मालिन की अवैध संतान तो नहीं है। इसके बाद उसने पूरी कहानी लिख डाली। विक्रम गांव गया और कन्हैया से पूरी बात पूछी। वो परेशान हो गया। पहले तो उसने सोचा कि सुंदरी की शादी शहर में किसी से करवा दे पर एक बात तो सुंदरी पढ़ी-लिखी थी नहीं ऊपर से वो सीधी-साधी भी थी ऐसी लड़कियों का अंजाम हो सकता था उसे सोचकर वो परेशान हो जाता था। अब मां का वचन था सो उसने सुंदरी से शादी तो की पर जिंदगीभर वो कुंआरों सा ही रहा और सबकुछ जानकर सुंदरी भी हमेशा भीतर-भीतर सुलगती रही। एक रखी हुई औरत और अब एक ऐसी ब्याहता जिसको कभी पति का प्यार ही न मिलने वाला हो अपनी जाई संतान का सुख की बात ही छोड़ दी जाए। वो अनमनी जिंदा मुर्दो की तरह रहती गाहे बगाहे उसके सूखे होंठों से एक गीत फूट पड़ता- अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो।

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