मंगलवार, 16 जनवरी 2018

एक (नंगी ही सही ) सच्चाई ही तो है!

(ये कहानी वर्तमान में इंदौर में घटित एक सच्ची घटना पर आधारित है। )
किसी ऑफिस में बॉस एक कहानी सुना रहे थे। काम के बोझ तले दबे कर्मचारी उनकी इस कहानी को सुन रहे थे। ये मनोरंजन के लिए तो नहीं पर मन बहलाने को बुरी नहीं है। वर्ना फिल्मी गाने तो हैं ही जो रिपीट होकर बजते रहते हैं।
बात किस विषय पर हो रही थी ये बात तो याद नहीं है पर वो मजबूरी पर बात कर रहे थे शायद। उन्होंने जो सुनाया वो अफसाना पेशेनजर कर रहा हूं। तो किस्सा ये है कि बॉस उस दिन काम की वजह से बहुत लेट हो गए। देर रात जब सब बिस्तरों में दुबके थे। तब वो घर लौट रहे थे। घर से कुछ ही दूर कार बंद हो गई। वो बोनट खोलकर चेक करने लगे। पास ही चौकीदार भी आ गया। पहचाना- अरे साहब आप! कार खराब हो गई। उसने देखा। इतनी रात को मैकेनिक कहां मिलेगा साहब? लगता है पैदल ही जाना पड़ेगा। उसने टार्च से बोटन में देखा। बॉस ने उसका मुंह देखा- ये भी कोई कहने की बात है? उन्होंने सोचा। तभी कुत्तों के गुर्राने और भौंकने की आवाज आई। देखा तो एक कचरा बीनने वाली महिला यहां-वहां से पन्नी बीन रही थी और कुत्ते...कुत्ते उसके पीछे पड़े थे।
हट... बॉस ने कुत्तों को भगाया।
जाने दो साहब...ये इंसानों से तो कम ही नोचते हैं।
अप्रत्याशित प्रतिउत्तर पाकर बॉस और चौकीदार सन्न रह गए।
क्यों साहब चौंक गए...उसने पास से पन्नी बीते हुए कहा। कोई आवाज प्रतिउत्तर में न पाकर वो आगे बोली- चौंको मत साहब, हम तो बचपन से नुचते आ रहे हैं। भूखों की भूख ने हमको कितना जख्मी किया हम जानते हैं। बदन जलता है। मांस तो एक बार खाया जाता है पर बाबू जी यहां तो बार-बार खाया जाता है और फिर बाद फिर तैयार हो जाता है और खाने के लिए। आओ और टूट पड़ो, नोचो, काटो, भसको, धोंदा भर-भर के खाओ। दर्द दो और जितना दरद हो...तड़प हो....उतना हंसों-खुश हो जाओ। अब आदत हो गई है... बाबूजी।
वो कमर पर हाथ रखकर खड़ी हो गई। उसकी मैली साड़ी, सांवला, दुबला सा बदन उस रात की कालिख में भी महसूस हो सकता था। अंधेरे में उसकी आंखे, नाक की लौंग और कान की पहरावन मंद-मंद चमक रही थी। नंगे पैरों की पायल पर जमी मिट्टी, उसकी फिकी चमक बता रही थी कि इस सूखे मौसम में भी कीचड़ में सनी है। वो सुनने वाला जानकर अपना दर्द बांट रही थी।
साहब जानना चाहते हैपर बात नहीं करना चाहते सामाजिक स्तर से उपजी मानसिकता जो उनको रोक रही है। ये समझकर चौकीदार पूछता जा रहा था। शादी नहीं हुई तेरी -चौकीदार ने आगे पूछा। वो मंगलसूत्र पहनाकर नोचता है। बाद में नुचवाता है। बच्चे नहीं है-चौकीदार ने आगे पूछा। हैं साब, कई गरभ गिरे, कई अधे जनमे, कुछ मरे अब तीन जिंदा है। तेरा पति नहीं मदद करता? साब वो तो इनको अपना खून ही नहीं मानता। इससे जादा (ज्यादा) क्या बताऊं कि मेरा पति मुझे ...दी कहता है। बोलता है न जाने किस-किस कि गंदगी लेकर घूमती हूं मैं पेट में। मैं...मैं उनकी परवरिश करती, वो विचलित हो गई। बच्चियां सुबह और दिन में पन्नी बीनती हैं। उनपर नजर न पड़े इसको उनकी जगह मैं अपने को परोस देती हूं। बेटा भी पन्नी बीनता है। छोटी-मोटी मजदूरी करता है।
साब, ये कुत्ते, ये जानवर बदन नोचते हैं पर मानुस तो आत्मा तक नंगी कर देता है। कभी एक तो कभी कई भेडिय़ों की तरह टूट पड़ते हैं...बार-बार खाते हैं, छील देते हैं। मैं कहती कपड़े मत फाडऩा...कम है। भले ही उतार दो। नंगी कर दो। वो इंसान की तरह मुझे लूट भी लें तो गम नहीं, कई बार लुटी हूं, फिर सही, खुद ही अपने को लुटने दूं,नुचने दूं, दर्द की तड़प के साथ काम करती रहूं, रोज की तरह पर वो हैवान से भी गिरे हुए हैं। अब नहीं कह सकती बाबूजी, विशाद से गला अवरुद्ध हो गया। फिर रुक कर बोली- मैं इस जलन में भी खुशी लेेने की कोशिश करती हूं, मेरे बच्चे मेरा सहारा। रात में बीनती हूं दिन में बेचती हूं। अपनी तो ये ही जिंदगी है...आपका टाइम क्यों खोटी करूं। आगे जाऊं वर्ना वहां से गंदगी उठा ली जाएगी। वो चली गई उसका साया दिखाई देता रहा। बॉस और चौकीदार अवाक् रह गए।
कहानी वर्तमान में आई। बॉस ने कहानी सुनाकर मजबूरी के बारे में कहा। फिर लोगों का मुंह देखा एक-दो समर्थन में आवाजें आईं काम...तो वो चल रही रहा था।

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