गुरुवार, 15 मार्च 2018

मदिरा पर वार्ता

शराब को पीकर लोग जीते हैं, लोगों को पीकर शराब जीती है। शराब को खराब कहकर इससे घृणा की जाती है। ये मानवता की दुश्मन तक मानी जाती है। प्राचीन समय से ही मदिरा का नाम देकर इसको प्रताडि़त किया गया। पर जब ये देवताओं के हाथ में गई तो इसे सोमरस कहकर सम्मानित किया गया। आज भी धनिक वर्ग शराब को फलों का रस कहकर पी जाता है और गरीब की मदिरा को बुरा-भला कहा जाता है। मदिरा पूछती है ऐसा द्विमुखी व्यवहार किस लिए?
महुआ-ताड़ी पर सरकारें प्रतिबंध लगा देती हैं पर विदेशी मदिरा को बाकायदा दुकान पर बेचा जाता है। मदिरा इस व्यवहार से दु:खी है। प्रो. मदिरा प्रसाद कहती हैं कि ये व्यवहार ही विषैली मदिरा यानी जहरीली शराब बनाने के लिए जिम्मेदार है। आप लोग शराब महंगी बेचते हैं उनको फायदा पहुंचाने के लिए जो सफेद में खेद-कर्म करते हैं। शराब-शराब में भेद - कर्म करते हैं। शराब महंगी जब मदिरार्थी, जी हां, जो मदिरा से अर्थ भेद रखें उनके लिए नया शब्द बनाया है प्रो. मदिरा प्रसाद ने। खैर, महंगी शराब जब मदिरार्थी को मिलती है तो वो सस्ती मदिरा के विक्रय केंद्रों की खोज प्रारंभ करता है जब उसे पता चलता है ऐसी मदिरा है ही नहीं तो वो अवैधानिक रूप से बनने वाली सस्ती मदिरा का सेवन करता है। अवैधानिक रूप से बननी वाली मदिरा, विभिन्न प्रकार के रसायनों का सम्मिश्रण होती है। ये रसायन बहुधा घातक होते हैं, जिनसे मदिरा का सेवन करने वाला आत्मा की गति को प्राप्त करता है यानी मर जाता है।
प्रो. मदिरा कांत कहते हैं कि अवैधानिक शराब बनने का कारण प्राचीन समय से बनने वाली मदिराओं पर प्रतिबंध लगना है। सत्तासंपन्न व्यक्ति विधि की आड़ लेकर धनिक मदिरा विक्रय करने वालों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से छोटे मदिरा बनाने वालों पर प्रतिबंध लगाते हैं। यही प्रतिबंध अवैध और विषाक्त मदिरा बनाने के लिए उत्तरदायी है। चर्चा-परचर्चा और मदिरा पर सुचर्चा पर श्रृंगारी रसिक मदिरादेव कहते हैं कि सुंदरी के नयनों से जो मदिरा की प्राप्ति होती है वो सर्वश्रेष्ठ है। इस मदिरा से किसी प्रकार की कोई हानि होने की संभावना नहीं रहती है। आप बस नयनों में नयन डालिये और रसानंद लीजिए।
एक पीडि़त मदिर स्वामी ने तर्क किया- मदिरादेव की बात मिथ्या है। मैंने एक सुलक्षणा कन्या के नेत्रों में अपने नेत्रों को घुसेड़ दिया। इस पर कन्या ने अपने मित्रों और अन्य जनों को शिकायत कर दी कि उक्त व्यक्ति मुझे तीष्ण दृष्टि से देख रहा है। बस, होना क्या था? सभी जनों ने मिलकर उसको शारीरिक रूप से पीडि़त कर डाला। वो तो नेत्रों से रूप मदिरा का ही पान कर रहा था। इस बात पर हम चलते हैं मदिरा के वात्स्यायन मदिरा शास्त्री के पास। मदिरा शास्त्री ने नाम लिखे जाने की शर्त पर बताया कि मदिरा भी वर्ण और आर्थिक व्यवस्थाओं से प्रेरित है। धनिक की मदिरा सर्वदा सोमरस कहकर पूजनीय हो जाती है वहीं निर्धन की मदिरा हेय कहलाती है। नगरवधुओं के सौंदर्य मंदिर के बाद मदिरालय एक ऐसा स्थान है जहां मानव स्वयं में स्थित हो जाता है। वो सांसारिक छल से दूर हो जाता है और सभी में समान हो जाता है। सत्ता जिस भांति से निर्धन का दमन करती है पर श्रम उन्हीं से क्रय करती है उसी भांति से निम्र मदिरा को प्रतिबंधित तो करती है पर चौर्य कर्म करते हुए उसे पीछे से विक्रय करती है। ये मानव का स्वभाव है।
मदिरा को वर्जित बताने वाले लोगों को आड़े हाथों लेते हुए वामाचरी बाबा वामदेव वामी कहते हैं कि जब तक मदिरा है तब तक संसार में व्यवस्था है। अपना अधिकार मांगने वाले मदिरा पीकर संतुष्ट हो जाते हैं और स्वप्रों में स्वर्गिक आनंदों का सेवन करते हैं। जिस दिन उन्होंने मदिरा को त्याग दिया वो अपने अधिकारों के लिए जागृत हो जाएंगे और युद्ध शुरू हो जाएगा। वामदेव वामी स्वयं मदिरा का पान करते हंै और अन्य लोगों को भी ऐसी ही दीक्षा देते हैं। धर्मसेवी नहीं मद्यसेवित बनों। वो मदिरा के आर्थिक लाभ भी बताते हैं। यदि मदिरा घातक है तो प्रतिबंध लगा दो। क्यों इस पर कर लगाकर राज्यकोषालय भरते हो। गरीब जो सस्ती मदिरा बनाते हैं उनको मदिरा बनाने से रोक कर उनकी निर्बल आर्थिक स्थिति को और अधिक निर्बल भी किया जाता है। फिर कहा जाता है कि गरीबी हटाओ। ये पाप नहीं महापाप है। मदिरा प्रेम मार्ग में नष्ट हो चुके लोगों को भी शांति प्रदान करती है। ऐसा भी बीच में बताया गया। एक दार्शनिक ने नाम न देने की शर्त पर कहा कि मदिरा धनिक के लिए शौक निर्धन की मजबूरी है।
मदिरालय में वार्तालाप करने के मध्य में शराबुद्दीन शराबी भी मिले जिन्होंने मुझे शराब का विज्ञान समझते हुए बताया कि शराबियों को नशा करवाने के तीन बाब होते हैं। जब तक ये न हो शराब असर ही नहीं करती, पहले शराब, फिर कबाब अंत में शबाब। नशा नाश नहीं, नशा तो चाहत है राहत है। उन्होंने मुझसे धन मांगा ताकि वो तीनों का सेवन कर सकें क्योंकि वो शराब के अलावा अन्य का सेवन करने में धन के रूप से समर्थ नहीं थे। अब मौका जानकर मैं वहां से भाग निकला। पीछे से उनकी आवाज आई- कहां जा रहा है तू ए जाने वाले, अंधेरा है पय का पयाला तो पी ले। भागते-भागते लेखक ने हलकी सी नजर से मदिरा को देखा वो सुबक रही थी।

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