शनिवार, 28 मार्च 2020

एक थी नायिका

ये क्या मोल दिया?
दो रुपया...
रुक जा
उसने ब्लाउज में हाथ डाला। एक हथेली भर का पर्स निकाला। दो रुपया दिया और बिंदी के पैकेट को थैली में डाल लिया। सांवला भरापूरा बदन लटकते वक्ष और साड़ी से बाहर आने को मचलता पेट और निकलती नाभी। अरे चल..उसने अपने बच्चों को डपटा जो हाट में यहां-वहां मस्ता रहे थे। पैरों में मोटी पायल जो काली सी पड़ चुकी थी। भारी सी आवाज- जोक्या इधर चल। जोक्या यानी जोगिया और सुल्ला यानी समीर इस औरत के बच्चों का नाम था। इस औरत का नाम था-कामी। वैसे तो इसका नाम कामिनी था जिसे देखकर काम की आग पैदा हो जाए पर इसका नाम कामी हो गया जो कि इसके पिता ने इसे प्यार से दिया था। असल बात तो थी कि इसका नाम काली रखा गया था पर मां को शर्म आई और काली कामी हो गई। कामी पूरे बाजार-हाट घूमती और सामान सस्ता जो होता ले लेती।
इसका पति केवल एक अखबार में काम करता था। वो एक कंपोजर था जो कि अखबार के लिए खबरें चलाया करता था। वो जो शाम के छह बजे से जाता तो अखबार निकलने के बाद यानी ढाई-तीन बजे रात को ही लौट पाता था। जब वो लौटता तब वो दरवाजा, जो भेड़ा कर यानी अटका कर रखा जाता था, खोलता था और थककर चूर होकर कामी को उठाता वो उसे खाना परोसी और फिर लेट जाती। रात को जब काम न होता था तो वो अपने साथियों के साथ वयस्क फिल्में देखता और जब वो ऐसा करता तो रात में आकर बड़े प्यार से कामी के पैरों को सहलाकर उसे उठाता या उसके पैरों को चूम ही लेता। कभी गुदगुदी भी करता। कामी समझ जाती और सोने के बजाए जागती और फिर दोनों डूब जाते प्यार के समंदर में।
कामी एक कमरे के मकान में रहती थी। वहीं चौका वहीं सोना। एक पलंगपेटी थी जिस पर वो जोक्या और सुल्ला को सुला देती और खुद जमीन पर गंदला सा गद्दा जिसे आप गोदड़ा कह सकते हैं बिछाकर सो जाती। वहीं एक ड्रम जिसमें कपड़े और स्टोव सहित दूसरे जरूरत के सामान जो कम उपयोग में आते थे रखा होता था एक अद्दा सा टीवी जिस पर वो सास-बहू के सीरियल देखती और फिर वैसा ही फैशन करती, रखे होते थे। आज कामी खुश थी आज ही के दिन उसका और केवल का विवाह हुआ था। वो सोलह श्रृंगार से सजी थी, लाल घाघरा-ओढऩी, उसका ब्याह हुआ था, वो भी केवल के साथ। इश्......श कामी शर्म से और काली पड़ जाती। उसका रोम रोम सिंहर उठता। शाम को शादी और उसी रात सुहागरात....वो उसको याद करती और गीत गाती- साजना है मुझे सजना के लिए...जो कि बेहद बेसुरा लगता।
पर आज जो हुआ वो उसपर किसी वज्रपात से कम न था। आज केवल की छुट़्टी थी और वो घर पर नहीं था। इस पर कानू भैया ने बताया कि उसका तो किसी दूसरी औरत से चक्कर है और वो उसके साथ सिनेमा देखने गया है सिनेमा का नाम भी था- ये प्यास कब बुझेगी। हें...रातरानी टॉकीज, जिसमें ऐसी वयस्क फिल्में लगती थीं, पास में ही था। वो वहां जा पहुंची। सिनेमा छूटी तो देखा केवल सैव्या के साथ निकला। वो खुश था कुछ बोल रहा था और सैव्या भी हंस रही थी। सैव्या कामी की पुरानी दोस्त थी। वो इससे पहले जहां रहती थी वहीं सैव्या भी रहती थी। शायद वहीं से इनका चक्कर शुरू हो गया होगा। सैव्या ने तो वहीं अपने पति को छोड़ मारा था।
अब कामी उनके सामने जा पहुंची। उसे देखकर वो घबरा गए। कामी ने सैव्या को पकड़कर उसका जूड़ा नोच लिया। भरे हाथों से मुक्के और थप्पड़ रसीद किये। अपने पति को छोड़कर मेरे पति पर डोरे डालती है। सैव्या को पिटता देख। केवल आगे आया-उसे छोड़ दे...अब मैं उसके साथ रहूंगा। तुझे आधी तनख्वाह दे दिया करूंगा। और क्या मेरे बगैर सो सकोगे...कामी ने पूछ डाला। अब ज्यादा डेकोरेशन मत कर घर जा। इतने में वहां दो हवलदार आ गए। और दोनों पक्षों को कचहरी ले जाए। सैव्या को थानेदार जानता था। वो उसका भी चाहने वाला था। मामले में पति ने कह दिया कि कामी के साथ नहीं रहूंगा चाहो तो जान से मार डालो। कामी अधूरे मन से वापस आ गई। अपनी पत्नी से अलग रह रहा उसका भाई कानू उनके पास आ गया।
लोग कामी को देखते तो मुस्कियां मारते। उसने पुराना घर छोड़ दिया और नए टापरे में आ गई। उसने पति को तनख्वाह देने से भी मना कर दिया। कानू मार्केट में सब्जी का ठेला लगाता था उसकी मदद से कामी ने भी सड़क किनारे सब्जी बेचना शुरू कर दिया। सब्जी के व्यापार में उसे कई लोगों से दो-चार होना पड़ता। कुछ उससे अच्छे से पेश आते तो कुछ शब्दिक बलात्कार कर डालते। बदमाश किस्म के लोग उसके अंगों की तुलना रसीले फलों से करते और लार टपकाते पर वो भी धीरे-धीरे दुनियादारी सीख गई। वो दबंग की तरह व्यापार करती, गालियां देती और व्यापार में चोखापन लाती। मोलभाव और बतियाने के चलते महिलाओं में वो लोकप्रिय हो गई। उसके ठिये पर महिलाओं की भीड़ होती।
इस बीच पास की एक सब्जी बेचने वाली छबीली से उसका टंटा भी हुआ। छबीली सभी से मजाक मारी करती यहां तक कि उसके तो कई सब्जीवालों से अंतरंग संबंध भी थे सो सभी उसकी ओर बोलने लगे। ऐसे में उसको साथ मिला कन्हैया का जो उसके पास ही बैठकर धंधा करता था। वो उसकी मदद करता। कामी उसकी ओर आकर्षित होने लगी। कन्हैया का परिवार पास के गांव में था। एक दिन कामी ने उसकी मदद करने की गरज से उसका टोकना उठा लिया जिसमें सब्जी थी और वो उसे लेकर उसके एक कमरे के मकान पर पहुंची जहां वो किराए से रहता था। वो अंदर गई उसने टोकना रखा इस बीच कन्हैया पास के कॉमन बाथरूम में हाथ-मुंह धोने गया। कामी ने उसका कमरा देखा। एक लोहे का पलंग, पानी का मटका और दीवार पर भोजपुरी अभिनेत्री का घाघरा-चोली वाला बेहद कामुक पोस्टर। रात का समय था और आसपास कोई भी नहीं। कामी का मनमचलने लगा। इस पर पलंग उसकी बेचैनी बढ़ा रहा था। उसका मन हुआ कि वो इस पर लेट जाए साड़ी उघाड़ दे। कन्हैया के साथ मन की आग बुझाकर उसकी ही हो जाए। कन्हैया, उसका साथी...वो उसकी हो जाए..बिलकुल इस अभिनेत्री की तरह कपड़े ओढ़ ले। बेकार तकलीफ कर डाली...कन्हैया मुंह पोछता हुआ अंदर आया। उसे देखकर कामी बाहर की ओर भागी..पायल छनक उठी..मन मचलने लगा वो भागी और बेतहाशा भागी। सूनसान गलियों को पार कर वो अपने घर आई और सांस लेकर थम गई। रात को तकिया पर उसे कन्हैया के जैसा लगने लगा पहले तो उसने उसे हटा दिया पर फिर उसके मन में ख्याल आया। जब केवल धोखा दे सकता है तो वो तो फिर भी....उसने साड़ी हटाई और तकिये पर लेकर उसे चूमती गई। हर अंग पर उसकी छुअन। एक अनोखा सहवास था ये...उत्तेजना के चरम से उतर जब वो कुछ होश में आई तो बाहर आकर उसने बाल्टी से पानी ले खूब मुंह धोया। पूरा ब्लाउज गीला हो गया। जोक्या जो दरवाजे से बाहर सटकर खाट पर सो रहा था उठा उसने उसे देखा फिर सो गया। वो समझा नहीं कि ये क्या हुआ था।
दूसरे दिन कन्हैया उससे मिला उसने पूछा कि वो रात को बिना कुछ बोले भाग क्यों निकली। इस पर कामी ने बहाना बयाना कि घर में जरूरी काम याद आ गया था। कन्हैया ने पोस्टर देखा था पर वो समझ नहीं पाया कि कामी ने कैसे अपने आप को टूटने से बचाया होगा। उसने ज्यादा ध्यान न दिया।
मंडी में ही व्यापार करता था जयजय बाबा। हवाई जहाज सा शरीर लंबे बाल, अजीब सी मूंछे और दाढ़ी। एक एकहरा आदमी वहां का दादाभाई था। उसने जब कामी को देखा तो देखता ही रह गया। जब उसका और छबीली का विवाद हुआ तो वो भी वहां आया और छबीली को चुप रहने की हिदायत दे गया। कामी को देखकर वो भी मचल गया। आदमी ने कैसे इसे छोड़ दिया...वो सोचता और अपने अंतरंग मित्रों से कहता- कितनी भरपूर है ये उफ...इसके आदमी ने कैसे इसे छोड़ दिया। अरे ... नहीं होता होगा साले का..उसके दोस्त कहते। ये एक रात का माल नहीं है हर रात...हर रात को ये रंगीन बना दे। ये ... से भरे वक्ष..ये भरापेट, ये रसीले होंठ, ये पूर से उफनता बदन। वो बात करने के बहाने कामी के पास आ जाता और उसकी छाती को देखता और ब्लाउज के अंदर झांकने की कोशिश करता जिसे कामी कभी समझ न पाई। वो सोचता एक दिन ये टूटेगी जरूर और उस दिन वो उसे अपनी बनाकर ही रहेगा। उसे छोड़ेगा नहीं...मांग में सिंदूर डालकर अपनी रखैल बनाकर रखेगा और कहीं एक कमरा दिलवाकर रखेगा। रोज उसके साथ दिन मंडी में और रात बिस्तर पर गुजारेगा। हालांकि जयजय बाबा ऐसा कुछ करता नहीं उसका तो खुद का परिवार था और एक खूबसूरत पत्नी भी थी पर उसका सपना था कि एक बार कामी उसे मौका दे। कामी को पता चला कि वो गुंडा-दादा है तो उसके पास राखी लेकर पहुंच गई। राखी देकर बाबा चमक (हैरान हो) गया उसने रखी तो नहीं बंधवाई पर वचन दिया कि वो उसकी रक्षा करेगा। कामी खुश हो गई। इसके साथ ही कामी पार्षद दादा दयावान को धार्मिक कार्यक्रम का सबसे ज्यादा चंदा देती और फोटो खिंचवाती। अंतत: छबीली मंडी छोड़कर ही भाग निकली। पांच साल बीत चुके थे। आज होली दहन की शाम थी, बाजार जल्दी उठ गया था। एक गेर निकली थी जिसने रामरज फैला दी थी। कामी का सामान समेटा जा चुका था वो बस ठिये को अगरबत्ती लगाकर घर जाने वाली थी। वो उठी और बोरा जिस पर वो बैठी उठाने लगी तो उसे याद आया शादी के बाद की पहली होली, जब केवल ने उसे रंग लगाया तो वो भागकर कमरे में चली गई केवल वहां आया-दरवाजा बंद किया और.....जो प्यार का रंग लगाया वो जोक्या के रूप में गर्भ में समाया। ऐसे ही करवाचौथ की रात को हुआ और सुल्ला होने को हो गया। ओए..होए....क्या क्या प्यार भरी यादें हैं जो अब याद करने लायक लगती नहीं।
खैर, वो उठी उसकी उम्र अब प्रौढ़ हो गई थी। कमर में दर्द भी रहता था। वो बोरा हिलाकर साफ कर ही रही थी कि आवाज आई। कामी...ये आवाज केवल की थी। उसके बाल बिखरे थे और वो बौराया सा था। कामी ने उसे देखा। क्या बात है? कामी....वो फूटफूट कर रोने लगा। कामी ने उसे पास ठिये पर बिठाया। कहो क्या बात है? केवल ने रोते हुए बताया- सैव्या को वह पहचाना नहीं। उसके कई पति थे और वो हर एक के साथ घूमती और मजा मारती थी। उसने आज उसे रंगेहाथों पकड़ा तो उसने और उसके साथी ने उसे पीटा और भगा दिया। वो एक ठेले पर बैठा था। कामी उसके सामने खड़ी थी। उसने उसका मुंह पकड़कर उसे अपनी छाती से लगा लिया। उसके वक्षों के बीच उसका पूरा चेहरा समा गया। कुछ क्षण वो ऐसे ही रहे। केवल के कानों पर पानी गिरा वो कुछ समझ गया। कामी के शरीर की गर्मी और पसीने की तीखी गंध को पाकर केवल यूं संतुष्ट हुआ मानों सर्दी की रात में अलाव मिल गया हो। फिर कामी ने उसे छोड़ दिया। मुझे माफ कर दे कामी। मुझसे भूल हो गई। उसने देखा कामी की आंखें गीली थीं। अब कामी गंभीर होकर बोली- आप छोड़कर गए। जिंदगी ने बहुत कुछ सिखा दिया। अब आप वापस भी आ जाओ तो भी मुझे वैसा न पाओगे। आप वैसे हो जाओ भले ही पर मैं पहले सी न हो पाऊंगी। आपको शायद मेरा शरीर मिले पर मेरी आत्मा की तो आप बहुत पहले ही हत्या कर चुके हो। आपने मेरी छाती को चूमा पर आंख से गिरते आंसुओं को आप जान न पाये। मेरा शरीर आपका था है और रहेगा। आप साथ चल सकते हो। रह सकते हो पर मेरी आत्मा इन आंसुओं के समान बहकर निकल चुकी है। केवल चुप रहा। कुछ देर बाद कामी ने जयजय बाबा को फोन लगाया और केवल का मामला बताया-बाबा, सैव्या इनका माल दबा गई है। बाबा, जो होली की पूजा करती महिलाओं से घिरा था वहां से निकलना नहीं चाहता था, उससे बोला कि वो रंगपंचमी तक रुक जाए उसके बाद वो सैव्या को पेलकर पूरा माल निकलवाएगा। पेलकर...।
आपको बता दें कि जयजयबाबा अपनी कॉलोनी या बस्ती का कथित दादा था जो हर धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करता था जिसमें महिलाओं की भागीदारी होती थी वो उनके बीच जाता और ऊर्जा से भर जाता महिलाएं भी मुस्काकर उसका स्वागत करतीं। वो सुनहरा मौका छोडऩा चाहता ही नहीं था वर्ना उस रात ही केवल का माल उसके पास आ जाता। खैर, कामी केवल को अपने साथ ले गई। कानू ने उसे गालियां दी पर कामी के बीच में हस्तक्षेप करने पर वो बाहर रंग खेलने चला गया। जाहिरातौर पर वो दूसरे दिन भी घर नहीं आने वाला था जबतक कि कामी उसे न बुलाए। जोक्या और सुल्ला, जो अब बड़े हो गये थे, ने उससे बात नहीं की वो चुपचाप रोटी खाकर बाहर ही खाट पर सो गये। देर रात को कामी बाहर आई कंबल लेकर वो जानती थी केवल के लिये ऐसे रात काटना मुश्किल था। उसने उसे कंबल ओढ़ाया और भीतर चली गई। कामी मुझे माफ कर दे...एक आवाज उठी पर कामी भीतर चली गई। कुछ लोगों का कहना था कि कामी ने उसे कंबल ओढ़ाया और खुद भी उसमें समा गई। क्योंकि वो जानती थी केवल अकेले सो नहीं सकता। उसकी बाहों में खुद को समेट दिया। एक समर्पण था ये। क्या हुआ ये कोई नहीं जानता? आपको जैसा लगे वैसा इस कहानी का अंत समझ सकते हैं। पर मैं जानता हूं कि मेरी कहानी की नायिका विद्रोह करती है और वो समर्पण कर ही नहीं सकती वो भी गलत आदमी के सामने...मैं आश्चर्य करता हूं कि वो समर्पण कैसे कर सकती है? मेरे हिसाब से उसने समर्पण तो नहीं ही किया! वैसे कुछ दिन बाद कामी और केवल एक हो गये, सबकुछ पहले जैसा हो गया बस कामी पहले सी नहीं हो पाई...वो एक जिस्म हो गई पर आत्मा...वो तो पहले ही मर चुकी थी।

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