रविवार, 8 मार्च 2020
फागुन के रंग में रंगी, विरह की आंच पर पगी 'एक प्रेम दुखांतिका'
फागुन माहों का राजा है। यह माह प्रकृति के नवतर स्वरूप से उपजे हर्षोल्लास को प्रकट करता है। इस ऋतु में चहुं ओर आनंद दृश्यमान हो जाता है। इसी कारण होली का रंगोत्सव इस समय आता है। इस रंगों से भरे माह में जब सब दिग-दिगांतों में उल्लास और हर्ष छा जाता है, तब बरबस इस ऋतुओं के इंद्रधनुष में काव्य के नवरसों के दर्शन सहज होने लगते हैं।
इन रसों में विरह रस का भी अपना महत्व है। इसी विरह रस को को प्रकट करती है लोकदेवता ईलोजी और होलिका की मर्मस्पर्शी प्रेमकथा। कहते हैं दैत्यराज हिरण्याकश्यप के समकालीन थे लोकदेवता ईलोजी। कहते हैं ईलोजी बहुत सुंदर थे। रंग से गोरे-चिट्टे और शरीर से गोल-मटोल। उस समय की सभी राजकुमारियां उनसे लगन (विवाह) करना चाहती थीं। इन्हीं राजकुमारियों में शामिल थी होलिका। हिरण्याकश्यप की बहन और प्रहलाद की बुआ, पर ईलोजी तो बहुत सुंदर थे और होलिका कुरूप थी, इसलिए होलिका ने तपस्या कर अग्रिदेव से वरदान पाया कि वो जब-जब अग्रि स्नान करेगी, उसकी कुरूपता स्वर्णिम सौंदर्य में परिवर्तित हो जाएगी।
वरदान प्राप्त होने के बाद होलिका और ईलोजी दोनों ने एक-दूसरे का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया। निश्चित दिन ईलोजी की बारात होलिका को ब्याहने के लिए निकल पड़ी। बारात के प्रस्थान की बात सुनकर होलिका अग्रि स्नान को प्रवृत्त हुई। उचित अवसर जानकर हिरण्याकश्यप ने प्रहलाद को उसकी गोद में बिठा दिया। हिरण्याकश्यप का विचार था कि वरदान के चलते होलिका बच जाएगी और उसके शत्रु हरि का परमभक्त भस्म हो जाएगा।
कहते हैं कि हरिकृपा से होलिका भस्म हो गई और प्रहलाद बच गया। ऐसी भी लोकोक्ति है कि होलिका प्रहलाद क ो हानि नहीं पहुंचाना चाहती थी। आखिरकार वो भी एक स्त्री थी और कयादु (प्रहलाद की मां) की पीड़ा को समझ सकती थी, पर वो भाई के वचन के आगे विवश भी थी, इसलिए उसने अग्रिदेव से प्रार्थना कर अपना वरदान प्रहलाद को दे दिया और स्वयं भस्म हो गई। बारात के नगर में प्रवेश करते ही प्रेमपाश में बंधे ईलोजी होलिका को देखने के लिए व्याकुल हो गए और वहां जा पहुंचे जहां होलिका भस्म हुई थी। ईलोजी ने व्याकुल होकर सभी से पूछा कि होलिका कहां है? सभी ने भस्म की ओर संकेत कर दिया। होलिका की मृत्यु को जानकर ईलोजी दुखित हो गए और दौड़कर होलिका की भस्म में कूद गए। उन्होंने होलिका की भस्म को शरीर पर मल-मलकर विलाप करना शुरू कर दिया। गोल-मटोल ईलोजी को भस्म मलकर विलाप करता देख लोगों को हंसी आ गई और सभी ने होलिका की राख उठाकर ईलोजी पर फेंकना शुरू कर दी। इस तरह से विरह के रंग में हास्य, (प्रहलाद के जीवित बचने के) आनंद और (भक्ति की विजय के) उत्सव के रंग मिल गए। इसके पश्चात ईलोजी होलिका को याद कर सदैव अविवाहित रहे।
आज भी राजस्थान में किसी की याद में कुंआरा रहने वाले या कि कुंआरों को चिढ़ाने के लिए ईलोजी कहा जाता है। ईलोजी को कहीं लोकदेवता तो कहीं नगर रक्षक भेरूजी के रूप में पूजा जाता है। ईलोजी और होलिका इस जीवन में तो नहीं मिल पाए पर उनकी प्रेमकथा सदैव के लिए अमर हो गई।
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