छोटे ठाकुर....बकुला ने पीछे से आवाज दी।
एक साधु ठिठककर रुका।
छोटे ठाकुर..बकुला भागकर उनके पास आया।
छोटे ठाकुर..
बकुला...
हां...मालिक
कहां हो आजकल..
छोटे मालिक और कहां होऊंगा..मजदूरी कर रहा हूं..देश आजाद हो गया है..अपनों की गुलामी कर रहा हूं।
साधु हंसा।
हां..हां, हंस लो बाबू..तुम्हारा क्या संन्यासी ठहरे, हम तो जोरू और घरू कोल्हू में पिस रहे हैं बस..
यहां कैसे आये...?
बड़के साले का पिंडदान है बाबू..पर तुम तो तब के गये आज मिले हो..
हां..पर अब न मिलूंगा।
क्यों?
जा रहा हूं बहुत दूर...
बाबू ऐसा न करो..तुम को देखकर चैन आता है बाकी तो..
क्यों क्या हुआ बाकी तो?
बाकी तो अब बाड़ा वीरान है बाबू..
तुम क्या गये..सब..सब लुट गया।
होना ही था एक दिन ऐसा..
पर बाबू तुम गये कहां, ऐसा क्या हुआ? मैं तो गांव गया था लौटा तो कुछ ठीक से पता नहीं चला।
गया..साधु हंसा। गया कहां? अपने पापों की गठरी लिये फिर रहा हूं।
कैसा पाप छोटे बाबू..तुम सा बाड़े कोई न था। तुम देवता थे। देवन थे गांव वालों के, आज भी तुम्हारी बात होती है तो अदब से सिर झुक जाते हैं। छोटी मालकिन आज भी पीहर में तुम्हारी राह तक रही हैं बाबू।
उसे तकने दो..उसका कर्ज अगले जन्म पूरा कर दूंगा।
बाबू तुम्हारी आवाज में बहुत दर्द मालूम होता है। आज कह दो, निकाल दो पूरा दर्द।
इससे क्या होगा?
तुम हल्का महसूस करोगे बाबू..
अच्छा.. तो सुनना चाहते हो मेरे पाप की अनसुनी कहानी... तो सुनो।
वो दोनों घाट पर बैठ गये।
बाड़े में वो नाचने वाली आती थी न..
कौन? अमीरन
नहीं..
कौन?
बड़े नसीबों वाली
नसीबन
हां..उसके साथ एक छोटी लड़की को बचपन में देखा था।
कौन? वो बरखा
नहीं..
सुंदरी..
सुंदरी..
हां, तब मैं 12 साल का था, वो थी 10 साल की। उसकी डरी-डरी मृगिनी से आंखें। मैं तो उसे देखता ही रह गया। पूरे बाड़े हाथ पकड़कर उसे मैंने घुमाया..सबकी नजरों से बचाकर। जब ढुंढाई पड़ी तो पकड़ा गया। सब हंसे बोले- ठाकुर का लड़का है बचपन से ही तबीयत रंगीन है। नसीबन ठुमरी गा रही थी। मैं चुपके से सुंदरी को वहां से ले आया था। लड्डू खिलाये और शर्बत भी पिलाया था उसको। बहुत से बेर भी दिये थे। जो पकड़े जाने पर उसके आंचल से गिर गये थे।
बेर खाकर वो बोली थी बेर तो फीका है हमने उसका जूठा छीनकर खाया वो खट्टा था। हम बोले फीका नहीं खट्टा है। इस पर वो तपाक से बोली मीठे तो नहीं है न...। इस पर हम भी बोल पड़े थे- बेर तो मीठे ही थे पर पूरी मिठास तुम्हारे होठों ने चूस ली है। अब वो पलट कर बोली- चखे हो क्या जो ऐसे बोल रहे हो? हम अवाक् रह गये। बाद के दिनों में इस बात को याद कर वो हंस पड़ती थी।
हर साल नसीबन आती। सुंदरी भी आती। 15 साल का होते-होते मैं सुंदरी से कुछ इस तरह मिल गया कि उसे देखे बिना चैन न आता एक बार घोड़ा दौड़ाते मैं उसके कोठे तक पहुंच गया। नसीबन ने मेरी बड़ी खातिरदारी की और जब पता चला कि मैं सुंदरी से मिलने आया हूं तो उससे मिलवाया भी। जब ये बात जाहिर हुई तो बड़ी डांट पड़ी थी मुझे। आज भी याद है बड़े भैया और पिताजी। पूरा बाड़ा सिर पर उठा लिया था दोनों ने। खैर, मैंने भी रास्ता ढूंढ ही निकाला। मैं बाहर के कामों में रुचि दिखाता और मौका पाकर सुंदरी से मिलने पहुंच जाता। सुंदरी के कुछ लोग मुझे आकर खबर दे देते कि कहां मिलना है? पर इश्क-मुश्क झुपाये नहीं छुपते। अब नसीबन का घर आना होता तो भी सुंदरी न आती। कह दिया था उसको। उसके लोग भी अब न आते। एक बार नसीबन को मैंने अकेले में रोक लिया बाड़े में पूछ डाला पूरा हाल। वो बोली- ठाकुर साहब..हम गाते हैं। बांछड़े नहीं हैं हम। हमारी इज्जत है। पतुरिया जान हमारा अपमान न हो। मैंने कह डाला कि सुंदरी से प्रेम है और उसे हम रखेंगे नहीं। उसे ब्याहेंगे।
नसीबन की आंखों के आंसुओं की तो पूछो मत दस बार पूछ डाला। हम दस बार बोले- ब्याहेंगे...ब्याहेंगे...ब्याहेंगे। फिर पूछा- सुंदरी कहां है? वो बोली- गाना सीख रही है। हमने उससे वादा लिया कि वो हमारी अमानत है उसके पास।
अब हम सारा हिसाब-किताब देखने लगे तो हिम्मत खुल गई। सीना ठोंकर चले जाते सुंदरी के कोठे पर सब समझते मर्द आदमी है। जाना तो बनता ही है उस पर दौलत अकूत। हम सुंदरी से मिलते वो हमारे लिये सजती-संवरती। उसके सोलह श्रृंगार हम पर यूं बरपते मानों हजारों हथियार एक साथ दागे हों हम पर।
उसकी हर लालसा हमारी ही होती मानों उसका कोई अस्तित्व ही न हो। हर बात उसकी यही होती यह उनको पसंद होगा न। यह उनको पसंद आयेगा न। हमें राधाजी और श्रीकृष्ण की कहानी याद आती। हम भी कृष्ण की तरह यही सोचते- इतना मोह न रख पगली। हम तेरे प्रेम के आगे वामन न हो जायें। कहीं काल ने हमें भी अलग कर डाला तो। उससे कहते तो वो गाती- बांधी जिय की डोर तोसे, जाओ जेहि आंगन, बंधो जेहि ठौर, जा न सकि हो दूर मोसे। हमारा प्रेम हमें उसके समर्पण के आगे लघुकाय लगता इस पर कभी हम उसका माथा चूमते तो कभी पैर। इसमें कहीं भी वासना नहीं थी एक श्रद्धा थी न जाने कैसी?
एक दिन वो बोली- आपके नाम से रख लूं करवाचौथ हमने कहा- रख ले..वो बोली- मांग तो सूनी है..हमने तुरंत भर डाली। अब वो मानों हमारे चरण पडऩे लगी। देह की अगन पर बारिद बन बरसो..सात जन्म हम अबहु न तरसो..तुम ही सिंगार तुम ही नाथ...सत्ते जन्म निभाओ ते साथ।।
उस दिन से वो हमारी पत्नी हो गई। उस हमने जैसे ही उसकी मांग भरी वो आनंदातिरेक से उछलती-कूदती नसीबन के पास पहुंची और ये बात उसे बता दी। वो प्रसन्नता को नेत्रों से छलकाती हमारे पास आई और बोली- छोटे ठाकुर, जन्मोजन्म न मिले ऐसा सम्मान दिया तुमने हमको। हमारे कुनबे में ब्याह तो होता पर ऐसी बड़ी हस्ती न मिलती है। सुंदरी खुद राजपरिवार की वंशज है पर किस्मत का खेल। न राजा का नाम मिला न सम्मान।
अब नसीबन ने खुद उसे नववधु की तरह सजाया। मंगलगीत गाया। उस रात हम उसके ही पास रुके।
यहां उसकी जिव्हा मौन हो गई और आंखों में वो दृश्य प्रकट हुआ। चंचल सुंदरी ने सेज पर आते ही मसकदानी (मच्छरदानी) गिरा ली। दूध को स्वयं ही चख लिया।ये उसका शरारती अंदाज़ था और कुछ नहीं। उस रात ऐसी चैन की नींद आई जो अब नसीब नहीं होनी। सुबह जब वो उठा तो देखा। सुंदरी नहाकर कमरे में धूप दे रही थी। वो दीवार पर लगी कान्हा-राधाजी की तस्वीर को धूप देने के लिये कुर्सी पर चढ़ी। उसने देखा कि सुंदरी के पैरों से पानी की एक बूंद बहकर नीचे जा रही थी एक बूंद पायल के घुंघरू पर जमी थी। उसने उठकर हथेली लगाकर बूंद को समेटा और पी गया। वो सकपका गयी- ये क्या करते हो छोटे ठाकुर? हम दब जाये है पाप के बोझ से। इस पर वो बोल पड़ा था- चरणोदक ले रहा हूं प्रेम की देवी का..सात जन्म तर जाइ हैं हम। वो उतर कर बोली- जाओ नहीं बोलते तुम से। वो बोला- नेत्रों से बोल से बोल ही रही हो न...
जाने कैसे ये बात घर पहुंच गई और अब हुआ भाग्य का खेल..हमारी उम्र 20 के करीब थी कि एक दिन अचानक से ब्याह दिये गये हम न मर्जी पूछी न राय मांगी। निर्मला से ब्याह दिया गया हमको। ब्याह के बाद जब हम सुंदरी के पास गये तो वो गंभीर थी आज ही हमने उसे यूं गंभीर देखा। इस पर हमने उसे समझाया कि हम हमेशा उसके ही रहेंगे। जैसे कान्हाजी की परिणीता रुक्मिणी थी पर वो थे तो राधाजी के ही न...बहुत समझाने पर वो अनमने ढंग से मानी और विरहा का गीत सुनाया- धाये..धाये मंदिर, मूरत, नद, नारे..न लौटे सखी न लौटे सखी प्रियवर हमारे। फिरि फिरि जाये केहि भांति कहै जियरा भया अधीर, कान्हा केहि भांति समझिहौं राधा के उर की पीर। बहुत समय में मानी वो हमारी बात।
निर्मला हमारी परिणीता थी पर हम तो सुंदरी के ही हो चुके थे। रोज शाम उसके ही पास जाते। वो हमारे नाम से मांग भरती। हम उसे तोहफा देते कभी पायल तो कभी कंठहार। देर रात लौटते तो निर्मला को देखते..उससे कह भी नहीं पाते कि क्योंकर हमारी राह देखती हो। उसके हम अपराधी हो रहे थे। वहीं सुंदरी का प्रेम हमें डुबाता जा रहा था। बड़के भैया ने एक दिन कुछ लोगों को कोठे पर लट्ठ बजाने भेज दिया। हमको पता चला तो हम वहां जा पहुंचे। हंगामा हुआ..सुंदरी का डरा चेहरा हमें आज भी याद है। हमने चिल्ला-चिल्लाकर कहा- सुंदरी हमारी ब्याहता है। अगर कुछ किया तो कचहरी में मामला पहुंच जायेगा। कोतवाल से कहकर डलवा देंगे कारावास में। शाम को लौटे तो बड़के भैया ने बुलाया। धमकाया हम न माने तो बोले- पतुरिया की जात न जानते हो। हम वहीं चिल्लाये- पतुरिया न कहना मांग भरी है हमने उसकी वो भी निर्मला से पहले। निर्मला ने यह सुना।
हम कमरे में चले गये। दूसरे दिन हम लेखा देख रहे थे कि पता चला। बाग घूमने गई सुंदरी की हत्या कर दी गई है। हम दौड़कर वहां पहुंचे। देखा तो सुंदरी जमीन पर पड़ी थी। बिलकुल शांत। ऐसा लगा कि बुला रही है आइये..स्वामी देखो आज कैसा लेपन किया है हाथों पैरों में तुम्हारी पसंद से सजे हैं हम... कैसा है हमारा मांडना। हमारे कंगन देखो, पैजन की आवाज सुनो। आज कौन सा गीत सुनोगे? उसके हाथों में देखा तो एक अधखुला थैला था जिसमें पके बेर थे। बचपन के प्रेम की निशानी। कच्चे तो वो खुद खा गई थी पके-पके हमारे लिये रख लिये थे। हमारा दिमाग फिर गया।
हम समझ गये किसका काम है। हम घोड़े से बाड़े पहुंचे। वहां अश्वशाला में गये और भीमा, करिया, देशू, नंदू और भाम्भी को संटी से बुरी तरह मारा। वो गिर गये। पर कुछ न बोले। इससे भी मन न भरा तो चाबुक ही चाबुक मारे। इतने में बड़के आ गये। क्यों मारता है इनको?
हमने कह दिया कोतवाली में इनको देंगे कारावास करवायेंगे। बड़के बोले- हमको करवा कारावास। हमने करवाया है ये सब। ये तो निर्दोष है। पतुरिया के चक्कर में बाड़े को लजवाया।
उस दिन हम दहाड़े मार-मार कर रोये। हाय..सुंदरी भी तो निर्दोष थी। हम गये थे उसके पास वो न आयी थी। वो तो समर्पित थी। क्यों मार डाला उसको? हमारा पाप भुगता उसने। हाय हम विधुर हो गये। उस दिन हमने देखा अटारी से निर्मला हमें देख रही थी। सांझ का समय था। हम उस दिन निकले कहकर- पाप हुआ है हमसे..अब न लौटेंगे हम। प्रायश्चित करेंगे जिंदगीभर। बड़के बोले- चला जा..दो दिन बाद वापस आ जायेगा। उस दिन हम निकले तो निकले ही निकले।
हम सीधे कोठे पर पहुंचे। वहां मातम पसरा था। हम वहीं रुके। दूसरे दिन अपने हाथों से उसका दाहकर्म किया। उसे दुल्हन सा सजाया गया था। उसके बाद हम उसकी अस्थियां और राख लेकर उत्तरकर्म करने को निकले पर मन न हुआ और हमनेे अस्थियों का विसर्जन नहीं किया। कोठे से नसीबन ने जो कुछ पैसे दिये थे उससे काशी फिर बनारस पहुंचे। वहीं त्याग दिया संसार को। आलिंगनबद्ध कर लिया संन्यास को। सुंदरी की अस्थियां साथ लेकर तब से ही फिर रहे हैं।
मेरी मानों तो छोटे ठाकुर... सुंदरी की अस्थियों का विसर्जन कर दो..उसे मोक्ष दे दो अपने जीवन से अपनी यादों से। उसका अधिकार क्यों छीन रहे हो?
बकुला..यह भी करने की कोशिश की पर ज्यों मटकी छूते हैं त्यों ही उसकी आवाज सुनाई देती है- छोड़ न देहु पिया, बिसार न देहू छोड़ प्रेम की रीत। जग से विलग पर नीकी है हमरे हरदै की प्रीत। सुनि लो हमको मन महि ओठ सिये न सिये। सीने से लगा रखो हमहु, हम जिये न जिये। हमने कह रखा है जब हम मरे तब उसकी अस्थियों में भली तरह से मिलाकर हमारी अस्थियों का विसर्जन कर दिया जाये।
बकुला यह संसार कितना सजीला क्यों न हो पर मन तो कहीं लगता नहीं। सुंदरी का प्रेम था ही ऐसा कि उसका रंग जो चढ़े तो केहि भांति उतरे..उतरे जिन उतरे। हम जब जाते उसका गीत सुनते। हमने कभी उसे छुआ ही नहीं न उसने कभी हम पर हक जताया। स्पर्श का मोहताज नहीं था ये प्रेम। विवाह की रात भी सेज पर एक ओर हम उसे तकते रहे दूसरी ओर वो। जब वो सोगई तो भी रातभर हम उसे तकते रहे फिर न जाने कब आंख लग गई। उसके उस चित्र को मन में रख रखा है आज तक। याद है हमारी आखरी रात जब उससे मिले थे हम। न जाने क्यों उसको ऐसा अहसास था कि दूसरी रात वो हमसे न मिल सकेगी।
उसने पूछा था- ठाकुर..एक बात बताओ।
पूछ..
अगर तुम हमारी आवाज न सुन सकोगे..हमें देख न सकोगे तो क्या करोगे?
हम इतना भर बोले थे कि तुझसे ही यह दुनिया है..प्यारी, तुम नहीं तो जीवन नहीं।
उस रात वो हमारी छाती पर सिर रखकर बहुत चुप्पय रही। बहुत कहने पर वो गायी और सुबक उठी- उड़ी जई है चिडिया..छोड़ के नीड़-निवाड़, तू जगाते रहियो खोल द्वार किवाड़ रे सजनी खोल के द्वार किवाड़। सखी उड़ी जई हैं..
दूसरे दिन वो सैर करने और झूला झूलने को बाग गई। उसकी सखियों ने बताया। हमारे बचपन का किस्सा कहकर उसने पके-पके बेर हमारे लिये चुने। उस दिन वो बोली हम पूरे हो जाये। नदिया सिंधु महि मिल जाये। उर के कुसुम जेहि-तेहि खिलि जाये। उस दिन वो ऐसा झूला झूली कि मानों अब उसे यह नसीब ही न होगा और हुआ भी ऐसा ही। उसका आखरी गीत था- दे सखी झूलो तेज पिय से मिलन रितु आई। कोई न जाना कि ये पिय हम नहीं कान्हाजी होने वाले थे। जब वो लौटी तो टांगे के करीब ही उसको सभी लोग दिख गये पर वो भागी नहीं। बाकी सब भाग निकलीं। वो भागी नहीं। गला दबा दिया उसका। उदर में खंजर भी उतार दिया। उसके अब वो बोल न सका। कुछ देर में चेतना आई।
अच्छा तो अब हम चलें। रेलगाड़ी का बखत हो गया है।
कहां जाओगे छोटे मालिक..
जहां प्रायश्चित ले जाये...
कभी मिलना चाहो तो कहां मिलोगे...
रमता जोगी बहता पानी कहां रुकते हैं पर कभी आओ तो बनारस में बड़े बाबाजी के यहां से जान लोगे कहां हैं हम? वहां होंगे तो मिल लेना।
बाड़े के बारे में नहीं पूछोगे छोटे ठाकुर...
बाड़ा...संन्यासी का बाड़ा तो यह पूरा भूमंडल है..मैं चलता हूं सुंदरी बुला रही है। वो देखो वहां खड़ी है टांगे के पास।
वो दोनों उठकर चलते-चलते बाहर तक आ गये थे। बकुला ने टांगे के पास देखा उसे तो कुछ दिखा नहीं।
जाते-जाते पीछे से पूछा- कोई पूछे तो क्या कहूँ?
कह देना हम ससुराल चले गये हैं।
२८ मई २१